SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 171
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ "मृत्यु से बचने का उपाय है । तपों के द्वारा साधना के द्वारा कर्मों का क्षय करके मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है।" महासतीजी ने फरमाया। ''ये कर्म क्या हैं ? इनके क्षय की आवश्यकता क्यों पड़ती है ?" नजर ने पूछा। "मनुष्य जो भी सही-गलत कार्य करता है और उससे उसके आत्मा पर जो बंधन पड़ता है, वह कर्म है । जैनधर्म में वीतराग भगवान ने आठ प्रकार के कर्म बताये हैं । जब तक आठों प्रकार के कर्मों की निर्जरा नहीं हो जाती तब तक मोक्ष नहीं होता । मोक्ष के लिये कर्मों की निर्जरा या क्षय होना जरूरी है।" महासतीजी ने समाधान किया। "मोक्ष क्या होता है ?" नजर ने पूछा। "मोक्ष पद प्राप्त होने के पश्चात् यह जीवन-मरण का चक्कर समाप्त हो जाता है ।" महासती जी ने बताया। "आपका मतलब है कि मोक्ष प्राप्ति के पश्चात् फिर न तो जन्म होता है और न मृत्यु ।" नजर ने जिज्ञासा से पूछा। "हाँ, तुमने सही समझा । परन्तु नजर ! इसके लिये बहुत बड़े त्याग और कठोर साधना की आवश्यकता होती है ।" महासतोजी ने समझाते हुए कहा। "महाराज साहब ! आप तो मुझे वह मार्ग बताने की कृपा करें जिस पर चलकर जन्म और मृत्यु के झंझट से छुटकारा मिल सकता है ।" नजर ने पूछा। "इसके लिये तो तुम्हें बहुत कुछ करना पड़ेगा। अभी तुम बच्ची हो। साधना का पथ अपनाना अभी तुम्हारे वश की बात नहीं है । संयम मार्ग अपनाना खांड़े की धार पर चलने के समान है।" महासतीजी ने कहा। "आप तो डराने वाली बात करने लगीं। मुझे किसी प्रकार का भय नहीं है। कठोर से कठोर मार्ग हुआ तो भी मैं उस पर चलने के लिए प्रस्तुत हूँ । कृपा करके आप मार्गदर्शन तो करें।" नजर ने दृढ़तापूर्वक पूछा। “यदि तुम वास्तव में आत्मकल्याण करना चाहती हो तो उसके लिए सबसे पहले दीक्षाव्रत अंगीकार करना पड़ता है।" महासतीजी ने बताया। "अर्थात् आप जैसी बनकर आपके शरण में रहना ।" नजर ने तत्काल कहा। उसने पुनः कहा-"दीक्षा लेने के भाव तो मेरे मन में कभी से उठ रहे हैं । मैंने अभी तक किसी को भी नहीं बताया है किन्तु अब बताना ही होगा। मैं आत्मकल्याण करना चाहती हूँ।" "वीतराग भगवान, तुम्हारी मनोकामना पूर्ण करे। किन्तु ध्यान रहे जो भी कदम उठाना है उसके पूर्व उसके प्रत्येक पक्ष पर गम्भीरता से विचार कर लेना। साथ ही अपने पालकों से भी अनुमति प्राप्त कर लेना। बिना अभिभावकों की अनुमति मिले तुम दीक्षाबत अंगीकार नहीं कर सकोगी।" इन शब्दों के साथ महासतीजी ने नजरकुमारी को मांगलिक सुनाया और फिर नजरकमारी अपने घर आ गई । उसके चेहरे पर हर्ष और संतोष था। जो ऊहापोह उसके मस्तिष्क में मची हुई थी, उसका उसे समाधान मिल गया था। से १२६ द्वितीय खण्ड : जीवन-दर्शन 00 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ 6 Jan Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy