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________________ महासती जी ने बालिका के विशिष्ट चिन्हों तथा रेखाओं को देखते हुए विचार किया कि यदि तो यह बालिका संयम व्रत अंगीकार कर ले तो जिनशासन की प्रभाविका होगी, अपना तथा अज्ञान में भट। कते हए अनेक प्राणियों का उत्थान करेगी । हृदयस्थ भावनाओं को महासती जी ने माता सोहनबाई से कहा- "मेरी एक बात जरा ध्यान से सुनो। यदि यह बच्ची स्वस्थ हो जाए और यदि इसके हृदय में संयम मार्ग अपनाने की इच्छा हो तो तुम इसे रोकोगी नहीं, ऐसा संकल्प लो।" सोहनबाई ने कहा- “महाराजश्री ! इसके जीने की आशा ही नहीं है और आप दीक्षा की बात कर रही हैं।" महासतीजी ने फरमाया--"धर्म के प्रताप से सब कुछ अच्छा ही होता है । तुम धर्म पर विश्वास रखो।" महासतीजी के वचन शिरोधार्य करते हुए सोहनबाई ने प्रतिज्ञा की-“यदि यह बच जाएगी क) तथा दीक्षा लेना चाहेगी तो मैं अन्तराय नहीं दूंगी।" महासती जी अपने स्थान पर पधार गईं। संकल्प शक्ति का चमत्कार हुआ । जहाँ कुछ समय पहले जोवन मृत्यु की ओर जा रहा था, वहीं अब मृत्यु जीवन की दिशा से भागने लगी । समय व्यतीत होता गया और बालिका के स्वास्थ्य में सुधार होता गया। कुछ ही दिनों में बालिका एकदम स्वस्थ हो गई। अब वह नियमित रूप से भोजन भी करने लगी। माता एवं परिवार के अन्य सभी सदस्य बालिका P को स्वस्थ एवं हँसते-खेलते देखकर प्रसन्न हो उठे। ___ बालिका के स्वस्थ होने के पश्चात् लोगों में यह चर्चा आम हो गई कि बालिका धर्म के प्रभाव से बच गई । इसी सन्दर्भ से लोगों को अनाथी मुनि का दृष्टांत स्मरण हो आया । एक प्रकार से अनाथी मुनि की घटना की यह एक पुनरावृत्ति थी। अनाथी मुनि की आंख में भयंकर वेदना उठी । बहुत उपचार किये, किन्तु सभी व्यर्थ । अन्ततः उन्होंने संकल्प शक्ति का प्रयोग किया-'यदि वेदना शान्त हो जाए तो मुनि दीक्षा स्वीकार करूंगा।' रात्रि के प्रथम चरण में संकल्प किया और अन्तिम चरण में आंख की वेदना शान्त हो गई तथा अपने संकल्प के अनसार वे मनि बन गए। उनकी साधना से प्रभावित होकर मगध सम्राट श्रेणिक जैनधर्म के अनुयायी बनें। बालिका नजर का जीवन सुखपूर्वक बीतने लगा । आनन्दपूर्वक हँसते-खेलते पाँच वर्ष पूर्ण हुए। उस समय महासती श्री सोहनकुवरजी म. सा. उदयपुर में ही विराज रहीं थी, क्योंकि उनसे वरिष्ठ एक महासतीजी का वहाँ स्थिरवास था। इसके अतिरिक्त सोहनबाई के चचेरे भाई मुनिश्री हस्तीमलजी म. सा. भी वहाँ विराजमान थे । मुनिश्री हस्तीमलजी महाराज का प्रारम्भ से ही अर्थात् सांसारिक अवस्था ही में थे तब से ही बहिन सोहन से बहुत स्नेह था। अपनी माता के साथ बालिका नजरकुमारी भी दर्शनार्थ स्थानक भवन जाती थी। धार्मिक | * संस्कार तो प्रारम्भ से थे ही, संत और सतियों के समागम और उपदेश श्रवण से ये संस्कार और भी अधिक अभिवृद्धि पा गये । रुग्णावस्था में माता द्वारा किये गये संकल्प की जानकारी नजर को नहीं थी। सत्संग का परिणाम यह हुआ कि 'नजर' के हृदय में वैराग्य भावना हिलोरें लेने लगी । विचारों में वह अपने आपको एक साध्वी के रूप में देखने लगी। उसे अपना यह साध्वी वाला प्रतिबिम्ब अच्छा और आकर्षक लगता । इस लघुवय में बच्चे जहाँ खेलकूद में आनन्द लेते हैं, वहीं बालिका नजर को खेलना अच्छा नहीं लगता था। स्कूल की छुट्टी होते हो वह अपना बस्ता घर पर रखकर सीधी स्थानक में महाद्वितीय खण्ड : जीवन-दर्शन १२५ 0000 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International Yar Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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