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________________ ज्येष्ठ भ्राता श्री कन्हैयालाल जी सियाल ने अपनी अनुजा की स्थिति देखी और वे सहन नहीं कर पाये । अपनी भगिनी को वे अपने घर लिवा लाये । अब पिता और भाई के आश्रय में दिन बीतने लगे । आघात पर आघात - विधि का विधान बड़ा ही विचित्र है । यहाँ सुखी और सुखी होता जाता है और दुःख और दुःखी । विधि का विधान प्राणी को कठपुतली की भाँति नचाता रहता है । पल में खुशी और पल में गम देना उसका स्वभाव है। सोहनबाई अपने पति के वियोग का दुःख भूल भी नहीं पाई थीं उन पर एक और महान् आघात हुआ । अभी पति की मृत्यु को छः मास ही व्यतीत हुए थे कि पुत्र पूनमचन्द को भी काल के क्रूर हाथों ने उसे छीन लिया। पति के अभाव में माता सोहन बाई के भविष्य का एकमात्र यह पुत्र ही तो सहारा था। वह भी क्रूर काल ने छीन लिया । पुत्र की मृत्यु से सोहनबाई के दुःख की कोई सीमा न रही । दुःखों का पहाड़ उन पर टूट पड़ा। सोहनबाई एकदम हताश एवं निराश हो गयीं। उनकी स्थिति जुए में हारे हुए खिलाड़ी से भी बदतर हो गई । जाने वालों के साथ जाया तो नहीं जाता । अपनी स्थिति को स्वयं ही सम्भालना होता है । पहले पति वियोग और अब पुत्र वियोग को सहते हुए येन केन प्रकारेण समय व्यतीत होने लगा । अब माता सोहनबाई का एकमात्र सहारा और केन्द्र बिन्दु 'नजर' ही थी । बाल्यकाल - परिवार में नजर को भरपूर प्यार-दुलार, स्नेह और ममता ओर माँ का अपार वात्सल्य था तो दूसरी ओर मामाजी प्राणों से भी अधिक प्यार हीरालाल जी की आँखों का एकमात्र तारा बन गयी। मौसी बग्गा भी 'नजर' को थीं । इस प्रकार लाड़-प्यार में बचपन बीतने लगा । मिल रही थी । एक करते थे । नाना बहुत प्यार करती इदं शरीरं ब्याधि मंदिरम् | यह कथन ही नहीं सत्य वचन है । जिस समय नजर पाँच वर्ष की भी नहीं हुई थीं । उस समय एक दिन अचानक वह भयंकर व्याधि की जकड़ में आ गई । खाना-पीना आदि सभी बन्द हो गया । 'नजर' के जीवित बच जाने की कोई आशा नहीं थी । इस कारण परिवार के सभी सदस्य चिंतित, व्यग्र, परेशान एवं दुःखी हो गये । मां का हृदय असह्य दुःख से भर उठा। वह अपनी एकमात्र पुत्री को ऐसो स्थिति में देख-देख कर जीवन के क्षणों को जी रही थी । ऐसी विषम परिस्थिति में उल्टे-सीधे विचार भी उत्पन्न होते हैं । उसके मस्तिष्क में विचार उठा - 'यदि इसे कुछ हो गया तो क्या होगा ? पति चल बसे, एक पुत्र था वह भी छोड़कर चला गया । अब तो इसका ही एकमात्र आधार है ।' ऐसा विचार आते ही सोहनबाई के शरीर में कैंपकपाहट उत्पन्न हो गई । उनकी आँखों से सावन-भादों की वर्षा की भाँति अश्रुधारा प्रवाहित हो चली । महासतीजी का पदार्पण - जिस समय नजर भयंकर रूप से रुग्ण थी उन दिनों पास के ही एक मकान में महासती श्री सोहनकुवर जी म. सा. विराज रही थीं । उन्हें किसी ने जाकर बताया कि एक छोटी बच्ची की तबियत बहुत अधिक खराब है। माता बिलख-बिलख कर रो रही है । आप उन्हें दर्शन देने पधारो । करुणा की मूर्ति, दया की सागर महासतीजी ने सुना और शीघ्र ही दर्शन देने पधारीं । परिवार के सदस्य भी वहाँ खड़े थे । महासतीजी ने मांगलिक सुनाया। माता को धैर्य धारण करने का कहते हुए फरमाया - " चिन्ता मत करो, वीतराग प्रभु की कृपा से सब ठीक हो जायगा । " १२४ द्वितीय खण्ड : जीवन-दर्शन Jain Education International साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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