SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 146
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चुनाव में भी उसे पर्याप्त स्वतन्त्रता मिली हुई थो । विभिन्न उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर यह निःसंकोच कहा जा सकता है कि प्राचीनकाल में नारी समाज का समाज में पर्याप्त आदर और सम्मान था। तभी तो यह उद्घोष गूंजता था-यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवताः । जहाँ स्त्रियों का आदर सत्कार होता है वहाँ देवताओं का वास होता है । जिस देश में नारी जाति के विषय में इस प्रकार की भावना हो, उससे सहज ही नारी के आदर सम्मान का अनुमान लगाया जा सकता है। कालान्तर में नारी के इस आदर-सम्मान की भावना में कमी आती गई और उस पर अनेकानेक प्रतिबंध लगने लगे। स्थिति यहाँ तक आ गई कि जहाँ पहले 'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते' का उद्घोष था, वहीं अब नारी को 'नरक की । खान' कहा जाने लगा । संत कवि तुलसीदास ने तो यहाँ तक कह दिया-ढोल गंवार शूद्र पशु नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी । इस प्रकार के विचार नारी जाति के सम्मान को ठेस पहुंचाने वाले तो हैं ही साथ ही पुरुष प्रधान संस्कृति के निम्नस्तरीय सोच को भी उजागर करते हैं। नारी समाज की गिरती हुई स्थिति पर विचार किया जाये कि ऐसी स्थिति क्यों हुई ? तो ME हमें इसका उत्तर भी सहज ही मिल जाता है । नारी जाति के विषय में ऐसे विचार का मूल कारण स्त्री-शिक्षा का अभाव रहा है। अशिक्षा के कारण समाज में अव्यावहारिकता, अशिष्टता, दुश्चरित्रता आदि अनेक दुर्गुण उत्पन्न हो जाते हैं। इन दुर्गुणों के परिणामस्वरूप नारी समाज का प्राचीन आदर सम्मान समाप्त हआ। यदि नारी समाज का वही प्राचीन गौरव स्थापित करना है तो उसके लिए उसे शिक्षित करना आवश्यक ही नहीं अनिवार्य है। शिक्षा उसे प्राचीन रूढियों से, खोखली परम्परायों से बाहर निकालकर मुक्त करती है । प्रसन्नता की बात है कि वर्तमानकाल में इस ओर विशेष ध्यान दिया जा रहा है। विभिन्न रूपों में नारी :-इतिहास के विभिन्न युगों में नारी की स्थिति एक समान नहीं रही है। उन सबका विवेचन तो यहाँ प्रासंगिक प्रतीत नहीं होता है किन्त नारी के विविध आयामी व्यक्तित्व पर संक्षिप्त रूप से विचार अवश्य करना है। नारी के ये रूप भी अनेक हैं, उन सबका तो वर्णन हम नहीं करेंगे, हाँ नारी के प्रमुख रूपों की चर्चा अवश्य की जायेगी। नारी : आदर्श माता :-नारी के विषय में समय-समय पर कुछ भी धारणायें रही हों किन्तु आज तक विश्व में जितने भी महापुरुषों ने जन्म लिया है, उनकी जन्मदात्री नारी ही रही है। फिर 12 मातृस्वरूपा नारी के विषय में ऐसे हीन विचारों को कैसे जन्म मिला ? आश्चर्य की बात है। माता को बालक की प्रथम शिक्षक के रूप में भी प्रस्तुत किया गया है। माता ही अपनी र संतान को सुसंस्कारित करती है । व्यक्ति में गुणों का विकास करने का श्रेय माता को ही जाता है। एक ममतामयी माता की दृष्टि में उसकी सभी संतानें समान होती हैं। फिर चाहे रूपवान हो या कुरूप, - बुद्धिमान हो या मूर्ख, शक्ति सम्पन्न हो या निर्बल । यदि इतिहास के पृष्ठ उलट कर देखें तो हम पाते हैं कि प्रत्येक महापुरुष के निर्माण में उसकी माता का ही हाथ लगता है। माना का महत्व प्रकट करते हुए एक स्थान पर नेपोलियन ने कहा था- 'यदि मुझे बीस श्रेष्ठ माताएँ मिल जायें तो मैं विश्व का साम्राज्य STARS तुम्हारे चरणों में अर्पित कर सकता हैं।' माता के रूप में नारी वात्सल्य की प्रतिमूर्ति है, सेवा की प्रतिमूर्ति है। ऐसा आदर्श सेवा भाव Cli जो एक माता के हृदय में अपनी संतान के प्रति देखने को मिलता है, अन्यत्र दुर्लभ है। १०४ द्वितीय खण्ड : जीवन-दर्शन 200 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ 60 Jain Location International Podrivatembersonaliticedly www.jainelibrary.org
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy