________________
विदुषीवर्या साध्वीरत्न महासती श्री कुसुमवती जी
महाराज का
जीवन दर्शन
महिला उत्कर्ष भारतवर्ष में आर्य संस्कृति की दो धाराएँ प्रवाहित हैं (१) वैदिक धारा और (२) श्रमण संस्कृति धारा । श्रमण सस्कृति ने जीवन के आध्यात्मिक चिंतन को जहाँ चरम उत्कर्ष पर पहुँचाया वहीं वैदिक संस्कृति ने भौतिक I जीवन को मधुर, समृद्ध एवं सामाजिकता के एक सूत्र में । आबद्ध कर आध्यात्मिक साधना की सुन्दर पष्ठभूमि का तैयार करने का महनीय कार्य किया है । संस्कृति की इन दोनों धाराओं को अलग-अलग न मानकर दोनों को एकदूसरे का पूरक माना जाये तो दोनों के बीच आज जो दूरी है वह कम हो सकती है, ज्ञान और कर्म निकट आ सकते हैं। संस्कृति के दोनों क्षेत्र, आध्यात्मिक और भौतिक, में पुरुष और नारी का समान योगदान रहा है। यहाँ हमारा मूल उद्देश्य नारी समाज की स्थिति का संक्षिप्त अवलोकन करने का है, जिससे यह स्पष्ट हो । सके कि प्रत्येक क्षेत्र में जितना हाथ या महत्व पुरुष वर्ग का रहा है, उतना ही नारी जाति का भी रहा है।
भारतवर्ष का इतिहास उठाकर देखने से विदित होता है कि प्राचीनकाल में यहाँ नारी को पर्याप्त स्वतन्त्रता मिली हुई थी। वह प्रत्येक क्षेत्र में पुरुष के साथ कंधे से कंधा मिलाकर कार्य करती थी। वर्तमान युग की भाँति उस पर कोई प्रतिबंध नहीं थे। सैंधव सभ्यता में नारी की स्वतन्त्रता के प्रमाण तो मिलते ही हैं, वैदिक काल में नारी की स्थिति का उत्तम उदाहरण वैदिक ग्रंथों में मिलता है। अनेक विदुषी नारियों द्वारा रचित वैदिक ऋचाएँ इस बात का प्रमाण हैं। नारी के अभाव में पुरुष का कार्य अपूर्ण ही रहता था। नारी सामाजिक, PAL साहित्यिक एवं सांस्कृतिक क्षेत्र में पुरुष के समान ही कार्य करती थी। कोई भी धार्मिक अनुष्ठान नारी के बिना पूर्ण नहीं होता था। अपने जीवन साथी के
# -डॉ. साध्वी दिव्यप्रभा
द्वितीय खण्ड : जीवन-दर्शन
G5 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ ।
ORATE
www.javenorary.org
husrary.org
Education Internal
For Private & Personal Use Only