SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 122
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन-दर्शन का तत्त्व-चिन्तन उस ज्योति प्रकाश पड़ेगी। जिस दिन यह अवसर आया, सभी आश्चर्यऔर परमात्म-तत्त्व की खोज कहीं बाहर नहीं, चकित थे। चंचल पवन क्षण-भर ठहरकर पुनः अपने भीतर ही करता है। वह कहता है कि अप्पा समाचार देने चल पड़ा था। सो परमप्पा अर्थात् आत्मा ही परमात्मा है । 'तत्त्व- सन्तों का तो सहज-स्वभाव ही परोपकार मसि' का अर्थ भी यही है कि आत्मा केवल आत्मा करना होता है । सन्तों के विषय में किसी कवि का ta ही नहीं है, बल्कि वह स्वयं परमात्मा है, परब्रह्म यह कथन कितना सटीक हैहै और ईश्वर है । आवश्यकता है अपने को जागृत "पद्माकप दिनकरो विकचीकरोति करने की और आवरण को दूर फेंक देने की । सर चन्द्रो विकासयति करवचक्रवालम् । लता एवं त्याग की प्रतिमूर्ति महासती श्री कुसुम नाभ्यथितो जलधरोऽपि जलं ददाति, वतीजी म. सा. का ज्ञान सागर-सा विशाल है, पर सन्तः स्वयं परहितेषु कृताभियोगाः ॥" उस ज्ञान का गर्व नहीं है। इनके विचार में भारतीय दर्शन कहता है कि जगत् की कोई भी आत्मा अर्थात्-तालाब के पुष्पों को सूर्य विकसित भले ही वह अपने जीवन के कितने ही नीचे स्तर करता है, चन्द्रमा कुमुद समूह को खिला देता है । पर क्यों न हो, भूल कर भी उससे घृणा और द्वेष बादल भी इसी प्रकार बिना प्रार्थना के ही जल मत करो। क्योंकि न जाने कब उस आत्मा में पर- बरसा कर सृष्टि को हरी-भरी कर दिया करते हैं, मात्म-भाव की जागृति हो जाये । इनके विचारों में उक्त उदाहरणों से स्पष्ट हो जाता है कि संसार की विकारों से मुक्ति ही सच्ची मुक्ति है। जीव-मुक्ति सन्तात्माएँ स्वभाव से ही परोपकार के लिए कृत-मर का अर्थ है-जीवन के रहते हुए ही शरीर और निश्चय होती हैं। श्वासों के चलते हुए ही काम, क्रोध आदि विकारों बाल्यावस्था में बालक के कोरे मन पर जो से यह आत्मा सर्वथा मुक्त हो जाये । इनका कथन वैराग्य का रंग चढ़ जाये तो वह जीवन-पर्यन्त है- जैन-दर्शन के अनुसार राग एवं द्वेष आदि उतर नहीं सकता। बाल्यकाल में पड़े संस्कार कषायों को सर्वथा क्षय कर देना ही मुक्ति है । राग आजीवन जीवन को प्रभावित करते रहते हैं। एवं द्वष पर विजय प्राप्त करने के लिए ही प्राणी किसी कवि ने कहा है-'यन्नवे भाजने लग्नः, संयम मार्ग की ओर प्रस्थान करता है। संस्कारोनाऽन्यथा भवेत्' वृद्धावस्था का वैराग्य उत्तम वैराग्य का बीजांकुर वैराग्य नहीं होता, क्योंकि उस आयु में संस्कारों बाल्यकाल से ही महासतीजी के बालमन पर में परिवर्तन लाता अत्यन्त कठिन है। इस भाव को । वैराग्य का बीजाकुंर प्रस्फुटित होने लगा था, पर दृष्टि में रखकर यह कहना कि बाल्यकाल में लिया उसे आवश्यकता थी आधार की । बिना आधार के गया वैराग्य ही वास्तव में धर्म के महान रथ को बीज भी अंकुरित नहीं हो सकता, उसी प्रकार खींच सकता है, वृद्धावस्था का वैराग्य नहीं, सर्वथा । बिना मार्गदर्शक के संयमव्रत ग्रहण नहीं किया जा उचित प्रतीत होता है। बालकों से धर्म के उद्धार सकता। फिर इनका जन्म तो संसार के उपकार की अधिक आशा की जा सकती है। के लिए हुआ है न कि गृह की चारदीवारी में बन्द आध्यात्मिक सुख की प्राप्ति बिना दुःखों को रहकर गृहस्थ धर्म का पालन करने के लिए। किसी सहन किये सम्भव नहीं। सन्त शिरोमणि श्रीलालको विश्वास भी नहीं था कि कसम-सी कोमल चन्द महाराज श्रमणलाल के शब्दों मेंबालिका संयम के कठोर मार्ग पर चलकर आत्म- "दुःख बिना सुख है कठे, कल्याण के साथ-साथ जग-कल्याण के लिए निकल मुख बिना ज्यों नहीं बोल । ८२ प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना %9E 50 साध्वीरत्न कसमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International E rivate. Dersonallise Only www.jainelibrary.org
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy