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________________ डॉ रमेश चन्द्र शर्मा जैन कला का पुरातात्विक महत्व भारतीय संस्कृति के विकास व पल्लवन में जैन धर्म का विशिष्ट योगदान रहा है। अहिंसा, अपरिग्रह, अस्तेय, स्यादवाद जैसे सार्वभौम और विश्व-कल्याण के सिद्धांतों को प्रस्तुत और प्रचारित कर इसने समस्त मानव जाति को एक सूत्र में पिरोने का महत्वपूर्ण कार्य किया है। फलतः जैन धर्म के आदर्श आदि काल से ही लोक मानस को आकृष्ट करते रहे हैं। प्रचुर साहित्य के साथ कला और पुरातत्व के प्रमाण भी इस तथ्य के साक्षी हैं। ___ जैन कला के विकास की आरम्भिक कड़ी कहां और कब से है, यह कहना कठिन है। पुरातत्व इस दिशा में हमारी सहायता तो करता है, किन्तु यह तर्क, विवेचन और विश्लेषण का क्षेत्र है जिसमें उत्साह के वेग के साथ धैर्य का अंकुश भी अभीष्ट है। जैन परम्परा के अनुसार जिन मूर्ति पूजा एक शाश्वत पद्धति है जो भगवान् ऋषभदेव के समय से ही प्रचलित हुई। एक तीर्थंकर से दूसरे के बीच की अवधि कभी-कभी इतनी अधिक है कि इसकी काल गणना आज के कम्प्यूटर युग में भी सम्भव नहीं प्रतीत होती तो बेचारा पुरातत्व ही इस काल अवधि तक कैसे पहुंच पाएगा। यदि सिन्धु संस्कृति के अवशेषों को कला की दृष्टि से प्राचीनतम मान लें (यद्यपि मेहर गढ़ आदि स्थल और अधिक प्राचीन हैं) तो हड़प्पा से निकला मानव धड़ शरीर रचना, नग्नाकृति, सुदृढ़ आकार की दृष्टि से किसी तीर्थंकर की मूर्ति का प्रतिनिधित्व करता प्रतीत होता है। सिन्धु संस्कृति अभी तक रहस्य के आवरण से ढकी है और जब तक लिपि का प्रामाणिक ढंग से वाचन नहीं हो जाता तब तक रहस्य का उद्घाटन सम्भव नहीं है। पिछले लगभग आठ दशकों से पुराशास्त्री इस ओर सतत प्रयासरत हैं। सिंधु संस्कृति का समय 2700 ई0 पू0 से 1500 ई0 पू0 के बीच का है। तत्पश्चात् पुरातत्व दीर्घ काल तक मौन साधना करता है और जर्मन पुरावेत्ता डॉ0 ए0 फ्यूहरर को मथुरा नगर के पश्चिमी अंचल में कंकाली नामक स्थल से जैन कलाकृतियों का विपुल कोष 1889-91 ई0 के बीच मिलता है। ये प्रस्तर कला कृतियां द्वितीय शती ई0 पू0 से 12वीं शती ई0 तक की हैं। आरम्भ आयाग-पट्ट के मंगल चिन्हों से हुआ तत्पश्चात् जिन आकृतियां आईं। बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ श्री कृष्ण के समकालीन और ब्रजमण्डल के निकटवर्ती शौरिपुर बटेश्वर (आगरा) से सम्बन्धित थे। सुपार्श्व, पार्श्व व महावीर की भी अधिक मान्यता थी और अन्तिम केवली जम्बू स्वामी ने यहीं अपना शरीर त्याग किया। फलत: यहां अनेक कालों में और विभिन्न चरणों में स्तूप या चैत्य बनते रहे एवं जिन मूर्तियां स्थापित होती रहीं। यह कला सम्पदा अब राज्य संग्रहालय, लखनऊ में सुरक्षित है। ___इनमें एक जिन मूर्ति की चरम चौकी का प्राकृत भाषा और ब्राह्मी लिपि में उल्लिखित लेख अद्वितीय महत्व का है। इसके अनुसार कुबेरा देवी द्वारा देव निर्मित स्तूप का जीर्णोद्धार पार्श्वनाथ जिन के समय हुआ। यदि अन्य तीर्थंकर इतिहास और पुरातत्व की सीमा से बाहर भी हों तो वर्धमान महावीर और उनके पूर्ववर्ती जिन पार्श्वनाथ अवश्य ऐतिहासिक विभूति थे जिनका समय क्रमश: पांचवी व आठवीं शती ई0 पू0 स्थिर हुआ है। यदि सन्दर्भान्तर्गत मूर्तिलेख और उसके पुष्टिकर्ता साहित्यिक प्रसंगों को प्रामाणिक माना जाय तो निष्कर्ष निकलता है कुबेरा देवी द्वारा स्थापित मूल स्तूप इतना प्राचीन और जीर्ण हो चुका था कि आठवीं शती ई0 पू0 में उसके जीर्णोद्धार की आवश्यकता अनुभूत हुई। अवश्य ही यह कुछ और शताब्दी पूर्व बना होगा। इसे देव निर्मित कहने से भी प्राचीनता सिद्ध होती है, क्योंकि यह कब बना इस तथ्य को लोग भूल चुके थे। जिस स्मारक की स्थिति आठवीं शती से कुछ शताब्दी पूर्व स्थिर होने के सूत्र मिल रहे हों यह भारतीय स्थापत्य के उद्भव व विकास के नए अध्याय का श्रीगणेश करता है। जैन मूर्ति कला का सांगोपांग अध्ययन मथुरा से मिले अवशेषों के माध्यम से सम्भव है। साथ ही जैन स्थापत्य (चैत्य स्तूप) और समाज का भी विशद विवरण प्राप्त होता है। क्योंकि बहुत सी प्रतिमाएं अभिलिखित और संवत् तिथि आदि से भी अंकित हैं अत: तत्कालीन सांस्कृतिक अध्ययन के लिए वे दर्पणवत् समादृत हैं। सरस्वती की प्राचीनतम प्रतिमा जिस पर देवी का नाम उत्कीर्ण है, यहीं से मिली। यहां यह उल्लेखनीय है कि प्राचीन धर्म ग्रन्थों के संकलन, सम्पादन, संरक्षण के लिए सरस्वती आन्दोलन कुषाण काल में मथुरा से आरम्भ हुआ जिसे माथुरी वाचना भी कहते हैं। समकालीन सरस्वती प्रतिमा का इस दृष्टि से और अधिक महत्व है। इस आन्दोलन से प्रेरित हो देश के विभिन्न स्थानों में जैन हीरक जयन्ती स्मारिका विद्वत् खण्ड / १०२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012029
Book TitleJain Vidyalay Hirak Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKameshwar Prasad
PublisherJain Vidyalaya Calcutta
Publication Year1994
Total Pages270
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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