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________________ के संत हुए हैं। अपभ्रंश संत योगीन्द्र कहते हैं कि न देवालय में, न शिला में, न आलेखन में, न चित्र में भगवान है, किन्तु अलख निरंजन और ज्ञानमय शिव शांत चित्त में स्थित है। देउ ण देवले णनि सिलए न वि लिप्पड़ णवि चित्ति। अखखुणिरंजण णत्णमउ, सिउ संठिउ समचिति। इसी तरह कबीर ने भी कहा है कि जगह-जगह ईश्वर नहीं है। मन का ईश्वर ही सब जगह है जैसे साधो एक रूप मन मांही। अपने मन विचारिकै देखो, कोउ दूसरो नाही। इसी तरह जैन संतों ने जाति प्रथा के खंडन में कहा है कि सभी आत्माएं समान हैं। उनमें से कोई छुद्र नहीं है और न कोई ब्राह्मण और न शूद्र है। भट्टारक शुभचन्द्र तत्वसारदोहा में कहते हैं कि बम्हण क्षत्रिय वैश्य न शूद्र। अप्पाराजा नवि होई छुद्र॥ कबीरदास भी यही बात कहते हैं कि___ एक बिन्दु तै दोऊ उपजै, को बाहमन को सूदा। कबीरदास एक ही मन को गोरख, गोविन्द और ओघढ़ आदि नामों से पुकारते हैं। जैन कवि आनन्दघन ने स्वयं आत्मा को ही विभिन्न नामों से कहा है जैसे राम कहो रहमान कहो कोऊ, कान कहो महादेव री। पारसनाथ कहो कर ब्रह्मा, सकल ब्रह्म स्वयमेव री।। भाजनभेद कहावत नाना, एकमृत्तिका रूपरी। तैसे खण्ड कल्पना रोपित, आप अखंड स्वरूपरी। इसी तरह जैन और हिन्दी साहित्य के प्राय: सभी संत कवियों ने अपने-अपने आराध्य को मुक्ति प्राप्ति का आधार माना है। तुलसीदास कहते हैं कि राम की भक्ति के बिना संसार का दुःख कैसे मिटेगा रघुपति भक्ति सत्संगति बिनु, को भवत्रास नसावै। जैन कवि बनारसीदास कहते हैं जगत में सो देवन को देव। जासु चरन परसैं इन्द्रादिक, होय मुक्ति स्वमेव। कवि घानतराय कहते हैं जो तुम मोख देत नहीं हमको, कहां जाये किहि डेरा। महाकवि सूरदास कहते हैं सूरदास वृत यहै, कृष्णभजिभवजल-निधि उतरत । इस प्रकार हिन्दी साहित्य की विकास यात्रा के विभिन्न सोपान जैन साहित्य की आधार भूमि पर टिके हैं। उपलब्ध प्राकृत, अपभ्रंश, राजस्थानी और हिन्दी के जैन साहित्य के गवेषणात्मक अध्ययन से हिन्दी साहित्य के विकास को नई गति मिल सकती है। जैन साहित्य जन-सामान्य में अधिक प्रचलित हो सकता है। ऐसे गहन अध्ययन से साहित्य के माध्यम से देश के सांस्कृतिक इतिहास को नई दृष्टि मिल सकती है। -अध्यक्ष, जैनविद्या एवं प्राकृत विभाग सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर हीरक जयन्ती स्मारिका विद्वत् खण्ड / ९१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012029
Book TitleJain Vidyalay Hirak Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKameshwar Prasad
PublisherJain Vidyalaya Calcutta
Publication Year1994
Total Pages270
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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