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________________ रूप में इस देश की प्राचीन और अर्वाचीन भाषाओं के साथ रहा है। चूंकि जैन कवियों ने देश की प्रायः सभी भाषाओं में विविध प्रकार का विपुल साहित्य लिखा है। अत: स्वाभाविक है कि जैन साहित्य की इस सुदीर्घ परम्परा से हिन्दी साहित्य प्रभावित होता रहा है। प्राकृत, अपभ्रंश और राजस्थानी भाषाओं के जैन साहित्य से तो हिन्दी साहित्य का सीधा सम्बन्ध है। हिन्दी साहित्य के विकास का जो समय जाना-माना जाता है उस युग में जैन कवियों ने अनेक विधाओं में हिन्दी साहित्य भी लिखा है। अतः परम्परा, विकास स्वरूप और भाषा की दृष्टि से हिन्दी साहित्य जैन साहित्य के साथ जुड़ा हुआ है। हिन्दी साहित्य में जो काव्य रूप प्राप्त होते हैं उनमें रासो साहित्य और चरितकाव्य प्रसिद्ध हैं। अपभ्रंश साहित्य में जो प्रबंध काव्य लिखे गये हैं, उनका हिन्दी के रासो साहित्य में सीधा संबंध है। रासो का प्रारम्भिक रूप प्राकृत और अपभ्रंश साहित्य में प्राप्त है, जिसका कथा और नृत्य के साथ सम्बन्ध था। हिन्दी साहित्य में उसने प्रबंधात्मक रूप ग्रहण कर लिया। जैन कवियों ने रासो साहित्य की शैली में कई रचनाएं लिखी है, जिन्हें पृथ्वीराजरासो आदि के साथ रखा जा सकता है। हिन्दी साहित्य में प्रबंध काव्यों के अन्तर्गत प्रेमाख्यानक काव्य बहुत लिखे गए हैं जिनमें अनेक लोक-कथाएं प्रेम कथाओं के रूप में प्रस्तुत की गई हैं। इन प्रेम कथाओं के लौकिक रूप प्राकृत और अपभ्रंश साहित्य में प्राप्त होते हैं। तरंगवती कथा, लीलावइकहा, रयणसेहरीकहा आदि प्राकृत कथाएं एवं भविसत्त कहा, विलासवईकहा, जिणदत्तचरिउ, सुदन्सणचरिउ आदि अपभ्रंश कथाएं हिन्दी प्रेमाख्यानक काव्यों की आधार भूमि मानी जा सकती हैं। ढोला मारु रा दोहा की कथा में जिन कथ्य-रूपों और कथानक रूढ़ियों का प्रयोग मिलता है, वे सब अपभ्रंश कथाओं में प्राप्त होते हैं। यहां तक कि यह ढोला शब्द भी प्राकृत के दूलह और अपभ्रंश से हिन्दी के दूल्हा तक पहुंचा है। हिन्दी के प्रसिद्ध ग्रंथ रामचरित मानस का अपभ्रंश साहित्य से घनिष्ठ संबंध है। सातवीं आठवीं शताब्दी के अपभ्रंश महाकवि स्वयंभू के पउमचरिउ में जिस प्रकार से रामकथा को उपस्थित किया गया है, तुलसीदास ने उसी प्रकार रामचरितमानस में राम कथा को प्रस्तुत किया है। दोनों ने रामकथा की उपमा नदी से की है। रामकथा सरोवर का रूपक, विनयप्रदर्शन, सज्जन-दुर्जन वर्णन, दोहा और चौपाई जैसे छंदों का प्रयोग राम के लौकिक रूप की प्रधानता, विभिन्न वर्णनों की शैली में एकरूपता तथा मानस में लगभग 60 प्रतिशत प्राकृत-अपभ्रंश शब्दों का प्रयोग, इस बात का सूचक है कि तुलसीदास ने जैन साहित्य में प्रचलित रामकथा को हिन्दी युग तक पहुंचाया है। इस प्रकार हिन्दी के प्रबंध काव्यों के तलस्पर्शी अध्ययन के लिए जैन साहित्य के प्रबंध काव्यों का मूल्यांकन अपरिहार्य हिन्दी साहित्य में छंद और अलंकारों का जो प्रयोग हुआ है वे अधिकांश प्राकृत और अपभ्रंश साहित्य से आए हैं। अपभ्रंश में विभिन्न छंदों को मिलाकर एक नवीन छंद के प्रयोग करने की प्रवृत्ति अधिक थी। छप्पय, वस्तु, रड्डा, कुंडलियां आदि इसी प्रकार के मात्रिक छंद हैं, जिनका हिन्दी साहित्य में खूब प्रयोग हुआ है। हिन्दी साहित्य में तुलसीदास की कवितावली और केशवदास की रामचंद्रिका में इन छन्दों का प्रयोग किया गया है। विभिन्न छंदों के प्रयोग को दिखाने की प्रवृत्ति अपभ्रंश साहित्य में भी थी। सुदंशण चरिउ में 70 छंदों का प्रयोग हुआ है तथा जिनदत्तचरिउ में 30 छंदों का प्रयोग है। इसी तरह की छंद बहुला अपभ्रंश रचनाओं ने हिन्दी साहित्य में काव्यात्मक रचनाओं के सृजन को प्रेरित किया होगा। मुक्तक काव्य की परम्परा : हिन्दी साहित्य में अनेक मुक्तक काव्य प्राप्त होते हैं। कबीर, विद्यापति, तुलसी, मीरा, बिहारी आदि कवियों ने भक्ति, उपदेश, नीति, श्रृंगार आदि विषयों के लिए मुक्तक काव्यों का सृजन किया है। इन काव्यों में प्राय: दोहा छंद का प्रयोग किया गया है। यह दोहा छंद प्राकृत के गाथाछंद का विकसित रूप माना जाता है, जिसका प्रयोग पहली शताब्दी के प्राकृत कवि हाल से लेकर मध्ययुग तक अनेक जैन कवियों ने किया है। गाथासप्तशती और बज्जालग्ग, पाहुणदोहा जैसे मुक्तक काव्यों से हिन्दी में मुक्तक काव्य स्वरूप और विषय की दृष्टि से प्रेरणा ग्रहण करते रहे हैं। गाथासप्तशती और बिहारीसतसई में तो अद्भुत समानता है। हिन्दी साहित्य के कई ग्रंथों के कथानकों पर भी जैन साहित्य का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। जायसी के पद्मावत पर प्राकृत अपभ्रंश कथाओं का स्पष्ट प्रभाव है। जायसी ने देश आदि तथा ऋतु आदि के जो वर्णन किए हैं, उनको पढ़कर लगता है कि अपभ्रंश कथा साहित्य से अवश्य परिचित थे। पद्मावत की नायिका पद्मिनी को सिंघल द्वीप का बताया गया है। प्राकृत और अपभ्रंश के लगभग 12 कथाग्रंथों की नायिकाएं सिंघल द्वीप की होती हैं तथा उसे प्राप्त करने के वर्णन भी प्राय: वही हैं जो पद्मावत में दिए गए हैं। जायसी के 100 वर्ष पूर्व के प्राकृत कथाकार जिनहर्षगणि की रयणसंहरनिवकहा और पद्मावत की कथा के अध्ययन से तो ऐसा लगता है कि जायसी ने इस प्राकृत ग्रंथ को अवश्य देखा था। इस तरह विभिन्न अभिप्रायों, कथा-रूढ़ियों और कथारूपों का यदि अध्ययन किया जावे तो जैन साहित्य और हिन्दी साहित्य के कथानकों के संबंध पर नया प्रकाश पड़ सकता है। हिन्दी के संत साहित्य और भक्ति साहित्य पर भी जैन साहित्य का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। प्राकृत और अपभ्रंश युग में अनेक ऐसे संत हुए हैं, जिन्होंने भक्ति धारा को प्रवाहित किया है। जैन साधक योगेन्द्र मुनि, रामसिंह कवि, आनन्दघन एवं सुप्रभाचार्य आदि ऐसे साधक हुए हैं, जिन्होंने बाह्य आडम्बरों का खण्डन कर मन की शुद्धि पर बल दिया है। हिन्दी की संत धारा में भी इस प्रकार हीरक जयन्ती स्मारिका विद्वत् खण्ड / ९० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012029
Book TitleJain Vidyalay Hirak Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKameshwar Prasad
PublisherJain Vidyalaya Calcutta
Publication Year1994
Total Pages270
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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