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________________ कहा। कम्पिलपुर में अठाई की। शक्रादेश में श्रमण निर्दिष्ट अम्बिका देवी ने अहिरात्र से 84 योजन दूर सौराष्ट्र देश पहुंचा दिया। पक्षोपवासी मयण ने गजपदकुंड में नहाकर गिरनारजी पर अभिषेक किया। प्रतिमा गलित होने से सबने आहार का त्याग किया। अम्बिका ने वैश्रमण के निर्देश पर पारणा कराया। इसके बाद वहां का चमत्कारिक वर्णन है। नेमि जिणेसर चरण अम्भोष महुयर अंबिकदेवितुहं, संघहसानिधुकरि सुह भोय देहिमण वंछिय उदय रिद्धि ।। 30।। भगवान महावीर के भ्राता नन्दिवर्धन निर्मापित 22 धातुप्रतिमाओं को 581 वर्ष बाद अम्बादेवी ने लाकर चन्देरी के सिद्ध मठ में रखा। बीकानेर के वृहत् भंडार में जिनप्रभ सूरि परम्परा की वि.सं. 1485 के लगभग लिखी हुई अज्ञातक विकृत अम्बिका देवी पूर्वभव वर्णन तलहरा ग. 30 का है। इसकी अंतिम गाथा निम्न है... बुहयण वयणह किंपिसुणेवि किंपिमुणेवि नियबुद्धि बलिण। चरिउ तुम्हारउ बनिउ देवि पूर मणोरह अम्ह तणइ ।। 26 ।। प्रतिष्ठान कल्प में लिखा है कि अम्बा देवी आदि वहां के चैत्य में बसते हुए भक्त श्री संघ के उपसर्ग नष्ट कर सहाय्य करती है। कपर्दियक्ष कल्प में अम्बा देवी का नाम भी सम्मिलित है। दिपुरी तीर्थ स्तवन में भी द्वार के समीपवर्ती छ: भुजाओं का क्षेत्रपाल और अम्बिका देवी का उल्लेख है। आरासण तीर्थ का प्रासाद निर्माण अम्बिका देवी की कृपा से हुआ है। इसका वर्णन उपदेश-सप्तति में दिया हुआ है जो निम्न है___ "आरासण तीर्थ पासिल नामक श्रावक द्वारा आरासण गांव में निर्मापित और देवगुप्तसूरि द्वारा प्रतिष्ठित चैत्य अनुक्रम से तीर्थ रूप में प्रतिष्ठित रेखा का उल्लंघन नहीं किया। योगी ने उदास होकर दूसरा प्रयोग प्रारम्भ किया। उसने कदलीपत्र नालिका में से एक सांप छोड़ा जिससे वह पत्र तुरन्त भस्म हो गया। दुष्ट योगी ने कहा- सुनो लोगों! यह रक्ताक्ष पन्नग शीघ्र अन्त करने वाला है। यह कहते हुए महाजनों के देखते-देखते सर्प को छोड़ा फिर दूसरे सर्प को भी छोड़ा जो उसका वाहन हो गया। योगी द्वारा प्रेरित सिंहासन पर वह चढ़ने लगा। आचार्य महाराज तो स्वस्थ चित्त से ध्यानारूढ़ हो गये। सब लोग हाहाकार करने लगे। योगी भी मुस्कराने लगा। गुरु महाराज के महात्म्य से वह दृष्टि विष सर्प हतप्रभ हो गया। तप के प्रभाव से एक शकुनिका आई। उसने सर्पयुगल को उठाकर तुरन्त नर्मदा तट पर छोड़ दिया। योगी दीनतापूर्वक गुरु महाराज के चरणों में गिरकर निरहंकार हो कर चला गया। संघ को अपार हर्ष हुआ। राजा ने महोत्सवपूर्वक गुरु महाराज को स्वस्थान पर पहुंचाया। उसी रात्रि को गुरु महाराज को एक देवी ने आकर कहा कि हे भगवन ! मैं सामने वाले वटवृक्ष पर रहने वाली पक्षिणी थी। जब मैंने आपकी धर्म देशना सुनी तो मैं उसी समय मरकर कुरुकुल्लादेवी हुई। मैं ही सकुनिका बनकर सांपों को उठा ले गई थी। गुरु महाराज ने "करूकुला स्तव" की रचना की। इसके पाठ से भव्य-जनों को सांपों के भय से दूर कर सकते हैं। कीर्तिरत्नसूरिशाखा के कवि देवहर्ष ने जिनहर्षसूरि के राजा ने डीसा गजल की रचना की जिसे श्री अगरचन्द नाहटा ने अभय जैन ग्रन्थालय प्रति सं. 1699 पत्र गाथा 120 से स्वाध्याय पत्रिका के वर्ष 7 अंक में प्रकाशित की है। जिसका अंश इस प्रकार है... आदि- चरण कमल गुरु लायचित सब जनकु सुखदाय। के प्रतिबोधा हठ किया विपुल सुज्ञान बताय॥ गाऊं गुण डीसा गुहिर सीद्ध पाता सुभयान। समरणी अंबा सिद्धि विघ्न विंडार दीयै धन वृद्ध ।।6।। अंत-रूप विचित्र छत्र अडोल बाधे अधिक जस अलोल। सुणतां मंगल गान देव कुशल गुरु वंछित दाता। चुगली चोर मद चूर सदा सुख आपै साता। चंद्रगच्छ सीरचंदगुरु जिनहर्ष सूरीश्वर गाजे। प्रतपो द्रूय जिमपूर भज्यां सब दालिद्र भाजै। पुण्य सुजस कीधो प्रगट जिहासिद्ध अम्बा माताधणी। कविदेवहर्ष सुख थी कहे दियै सुजस लीलाघणी।।2।। आरासण गांव के नेमिनाथ मन्दिर का निर्माता गोगा मंत्री का पुत्र पासिल बहुत ही प्रसिद्ध है। इसके लिये कहा जाता है कि वह प्रारम्भ में बहुत ही निर्धन था। एक बार वह गुरु महाराज के पास निवेदन करने आया तो छाड़ा की पुत्री हांसी ने उसकी बड़ी मजाक उड़ाई कि क्या वह भी मंदिर बना रहा है। 99 लाख व्यय करके राजा ने मन्दिर बनवाया है वैसा क्या आप भी बनावेंगे। उसने गुरु महाराज द्वारा बताई गई विधि के अनुसार अम्बिका देवी की आराधना की। दस उपवास करने के बाद अम्बिका प्रगट हुई उसने कहा कि मेरे प्रभाव से सीसे की खान चांदी की हो जावेगी। तुम उसे ग्रहण कर निर्माण कार्य कराओ। हुआ।" एक बार मुनि चन्द्रसूरि के शिष्य आचार्य देवसूरि भृगुकच्छ चातुर्मास स्थित थे। उस समय कान्हड़ नामक एक योगी क्रूर सांपों के 84 करण्डिये लेकर वहां आया और कहने लगा कि हे सुरेन्द्र ! मेरे साथ विवाद कीजियेगा नहीं तो यह सिंहासन त्याग देवें। आचार्य ने कहा कि हे मूर्ख! तेरे साथ विवाद कैसा? क्या श्वान के साथ कभी सिंह का युद्ध होता है? योगी ने कहा कि मैं सर्प क्रीड़ा जानता हूं जिससे महल आदि स्थानों में जाकर दूसरे लोगों से अधिक पुरस्कार प्राप्त करता हूं। आचार्य महाराज ने कहा- हे योगी! हमें किसी प्रकार का वाद करना अभीष्ट नहीं है क्योंकि मुनि तत्वज्ञ होते हैं और विशेष कर जैन मुनि तो विशेष तत्वप्राज्ञ होते हैं। फिर भी तुम्हें यह कौतुक ही करना हो तो राजा के समक्ष विवाद करो क्योंकि विजय इच्छुकों को चतुरंग वाद करना चाहिए। __ योगी और आचार्य महाराज श्रीसंघ के साथ राज्यसभा में आये। राजा ने उन्हें सम्मान पूर्वक सिंहासन पर बैठाया। आचार्य महाराज उदयाचल पर आरूढ़ सूर्यबिंब की भांति सुशोभित थे। योगी ने कहा- राजेन्द्र सुखावह वाद होता है, जो प्राणान्तक वाद है अत: मेरी शक्ति को देखिये। आचार्य महाराज ने उसे शेखी बघारते हुए देखकर कहा- अरे बराक, तुम्हें पता नहीं हमलोग सर्वज्ञ पुत्र हैं। फिर आचार्य महाराज ने अपने चारों ओर सात रेखाएं बनाई। योगी द्वारा बहुत से सांप छोड़े गये पर किसी ने हीरक जयन्ती स्मारिका विद्वत् खण्ड / ७० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012029
Book TitleJain Vidyalay Hirak Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKameshwar Prasad
PublisherJain Vidyalaya Calcutta
Publication Year1994
Total Pages270
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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