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________________ मौजूद थे। इसमें अस्पृश्यतावाला तत्व अछूतों के लिए काफी आकर्षक बना। बहुत से हिन्दुओं ने स्वेच्छा से इस्लाम धर्म को स्वीकार किया। इस्लाम धर्म ने हिन्दू जीवन पर गहरा प्रभाव डाला। डाक्टर ताराचन्द ने मराठा, राजपूत, सिक्ख, रजवाड़ों के रीति रिवाजों, उनके दैनिक जीवन की छोटी-छोटी बातों, संगीत, पोषाक, पहनावा, पाक कला, विवाह संस्कारों, तिथि त्यौहारों, मेलों दरबारी तहजीब पर विस्तार से लिखा ही इस्तेमाल किया जाता था। तुर्क को तुरुसकाश और अरबों को यवन कहा जाता था। लोग पश्चिमी एशिया से यहां आते थे वे चाहे यूनानी हों या रोम के या अरब के, यह उन्हीं के लिए इस्तेमाल होता था। दूसरा शब्द तुर्कों एवं अरबों के लिए इस्तेमाल किया जाता था, वह शब्द म्लेच्छ था। ऋगवेद में इस शब्द का इस्तेमाल होता है और यह शब्द अनार्यों के लिए इस्तेमाल होता था। बाद में यह विदेशियों के लिए भी प्रयोग में लाया जाने लगा इसलिए म्लेच्छ शब्द संस्कृति के लिये इस्तेमाल किया गया। अरबों ने ईसा की आठवीं सदी में सिन्धु पर अपना राज्य कायम किया और तुकों ने 11वीं शताब्दी में पंजाब में। 14वीं शताब्दी में मुस्लिम-वंश ने दकन में अपना राज्य स्थापित किया। अतएव मुस्लिम राज्य की स्थापना का कोई एक समय नहीं है। एगेत्स ने लिखा हैइस्लाम पूर्व के लोगों विशेष कर अरबों के अनुकूल धर्म है अर्थात् एक ओर यह उनके अनुकूल है जो शहरों में व्यापारर में लगे हुए हैं तथा दूसरी ओर घुमक्कड़ बेदुई लोगों के अनुरूप है। हजरत मुहम्मद और तत्कालीन खलीफा ने व्यापार में लगे समूहों और पिछड़े हुए कबीली समुदायों को एक जुट करने में सहायता की और यही प्रयत्न अरब देशों में सामन्तवाद का सेद्धान्तिक आधार बन गया। अरब देशों में सामन्तवाद का विकास इसलिए हुआ, क्योंकि वहां कबीली साम्यवाद के दृढ़ अवशेष भी मौजूद थे। खलीफा और विजेता योद्धाओं के रूप में रंगमंच पर आये और इसी प्रक्रिया ने एशिया, अफ्रीका की जनता के बड़े हिस्सों को इस्लाम की ओर आकृष्ट किया। आम ऐतिहासिक घटनाक्रम ने एक धार्मिक छाप ग्रहण की। यह याद करने की बात है कि इस्लाम के जन्म के पहले भी अरब तथा भारत की जनता का व्यापारिक संबंध था। अपने व्यापारिक हित के लिए मालावार के शासक जमोरिन ने अपने क्षेत्र में उन्हें मस्जिदें बनाने और धर्म के प्रचार की छूट दी थी। आठवीं शताब्दी में इस्लामी प्रभाव का दूसरा दौर शुरू हुआ। उस समय हिन्दू समाज में जाति प्रथा का प्रभाव, छुआछूत, कर्म का सिद्धांत अपनी जड़ जमा चुका था। इन्हीं परिस्थितियों ने मुस्लिम विजेताओं के अधीन सामन्ती राज्यों की स्थापना के लिए जमीन तैयार की। गोरी और गजनी का आक्रमण हुआ, दिल्ली सल्तनत बनी। उसने भारत में पहली बार एक शक्तिशाली मध्ययुगीन राज्य का निर्माण किया। मुसलमान आक्रमणकारी अपने साथ एक नया धार्मिक दृष्टिकोण लाये थे, लेकिन उनके पास उत्पादन की कोई नयी प्रणाली नहीं थी इसलिए वे भारत के तत्कालीन सामन्तवादी आधार को बदल नहीं पाये। यहां तक लिखा गया है कि भारत के मुसलमान शासक अब तक प्राचीन इस्लाम के कितने ही लक्षणों को त्याग चुके थे। खलीफाओं ने कुरान की शिक्षाओं की नयी व्याख्या की। साथ ही साथ दिल्ली सल्तनत की स्थापना के पहले ही मुस्लिम विजेता फारस के उच्च वर्ग के गैर इस्लामिक विचारों को आत्मसात् कर चुके थे। भारत में इस्लाम का जो रूप था उसकी अन्तर्वस्तु अरब से भिन्न थी तो भी यह सच है कि पुरानी सादगी, कबीलायी जनतंत्र और सामाजिक न्याय के कुछ तत्व इनमें अब भी बाबर तक आते-आते इस्लाम ने अपने आपको भारतीय सामन्ती परिवेश के अनुकूल बनाया। भारतीय मुसलमान शरीफ जातों', 'अजलाफ' यानि ऊंच-नीच में बंट गये। इतिहासकार ताराचन्द ने लिखा है कि दोनों में जहां समूह चेतना का विकास हुआ था और दोनों में क्षेत्रीय तत्व प्रधान था, वहां दोनों की अन्तर्वस्तु एक दूसरे से मेल नहीं खाती थी और घुल-मिल नहीं पाती थी। लेकिन दो अलग-अलग राष्ट्र नहीं थे उनमें वंशीय या जातीय भेदभाव नहीं थे। दोनों धार्मिक समूहों के खेतिहर या कारीगर वास्तव में एक ही वर्ग के थे। ठीक वैसे जैसे राजपूत, मुसलमानों में शेख। लेकिन जनता में अपना प्रभाव बढ़ाने के उद्देश्य से मुसलमान शासकों ने नये मुसलमान शासकों को सत्ता के हित के लिए ही विशेष सुविधाएं प्रदान की। इतिहासकारों ने एक और भ्रांति को जन्म दिया है जो साम्प्रदायिकता के प्रचार-प्रसार में उकसावे का काम करता है, परन्तु इतिहास का सही विश्लेषण कुछ और ही बताता है। तुर्क, अफगान, मुगलों के बहुत पूर्व से ही शासक शोषक वर्ग ने अपनी सत्ता को सुदृढ़ बनाने के लिए धर्म का बार-बार व्यवहार किया है। इसके व्यवहार में उन्होंने अपने विरोधियों का दमन किया है और धर्म के नाम पर जनता में भेदभाव की खाई चौड़ी की है। इसलिए धर्म और राजनीति के संबंधों को ऐतिहासिक दृष्टि से समझने की जरूरत है। यद्यपि सिन्धु सभ्यता के बारे में अभी पूरी जानकारी प्राप्त नहीं हो सकी है, लेकिन इस सभ्यता के अंतिम दिनों से ही राजनीतिक प्रभुसत्ता को सुदृढ़ करने के लिए आक्रमणों के ऐतिहासिक साक्ष्य मिलते हैं। उदाहरणार्थ दास प्रभुवों ने इण्डो इरानी दास प्रभुवों के साथ युद्ध किया था। कालान्तर में 600 ई0 पू0 सिन्धु सभ्यता के दास प्रभुवों के प्रतिपक्ष वैदिक धर्म के विरुद्ध शेष धर्म का आश्रय लिया था। 600 ई0 पू0 सामन्ती मालिकों ने पंचदर्शन का व्यवहार इसलिए किया था कि उनके विरोधियों का ब्राह्मणवाद, बौद्ध तथा जैन धर्म में विश्वास था। गुप्त वंश के सम्राटों ने ब्राह्मणवाद के नाम पर राजसत्ता का रोष बौद्ध और जैन धर्मावलम्बियों पर उतारा था। यही नहीं 500 से 1200 ई0 तक सारे देश के सामन्तों ने ब्राह्मणवाद और बौद्धधर्म के प्रसार के लिए एक-दूसरे के साथ निरन्तर युद्ध जारी रखा। उस समय का इतिहास इस बात का साक्षी है कि आक्रमणकारियों ने धार्मिक स्थानों की लूट की। विरोधी धर्मावलम्बियों का व्यापक नरसंहार किया गया। कल्हण ने राजतरंगिनी में जो विवरण दिया है उसके अनुसार काश्मीर के सम्राट हर्ष ने अपने राज्य के सभी मन्दिरों को आर्थिक लाभ के लिए लूटा था। मंदिरों की लूटमार के संचालन के लिए 'देवोत्पन्न नायक' हीरक जयन्ती स्मारिका विद्वत् खण्ड / ५६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012029
Book TitleJain Vidyalay Hirak Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKameshwar Prasad
PublisherJain Vidyalaya Calcutta
Publication Year1994
Total Pages270
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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