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________________ खरतरगच्छ की संविग्न साधु परम्परा का परिचय : मंजुल विनयसागर जैन बाई | अखेचन्दजी झाबक की पुत्री चुन्नीबाई से आपका पाणिग्रहण हुआ था जिससे तीन पुत्र व एक पुत्री हुई थी। ४८ साध्वीरत्नों के उपदेश व प्रयत्न से प्रतिबोध पाकर सम्वत् १६४३ वैशाख सुदि दशमी को पत्नी के साथ इन्होंने दीक्षा ग्रहण की। दीक्षादाता थे भगवानसागर जी । भगवानसागरजी ने इनको श्री राजसागर जी के पौत्र श्री स्थानसागरजी का शिष्य घोषित किया। ये सिद्धान्तों के अच्छे जानकार थे और महातपस्वी भी थे । भगवानसागरजी का स्वर्गवास हो जाने पर आपने इस समुदाय का भार सम्भाला । आपके कार्यकाल में ६८ साध्वियों ने दीक्षा ग्रहण की । अन्त में आपने ५२ उपवास किये जिसमें ४० उपवास जन के साथ थे और १२ उपवास निर्जल थे । इसी की पूर्णाहुति में सम्वत् १९६६ द्वितीय श्रावण सुदि छठ को लोहावट में आपका स्वर्गवास हो गया । सम्वत् १६७० में लोहावट में आपकी पादुकाएँ स्थापित की गयीं । महातपस्वी छगनसागर जी के स्वर्गवास के पश्चात् संघ ने भगवानसागरजी के प्रमुख शिष्य सुमतिसागरजी से (जो कि उस समय खान देश में थे ) गच्छभार संभालने का अनुरोध किया था, किन्तु सुमतिसागरजी ने अपनी अनिच्छा प्रदर्शित करते हुए त्रैलोक्यसागरजी को सौंपने का आग्रह किया । (१०) त्रैलोक्यसागरजी जैसलमेर राज्यान्तर्गत गिरासर निवासी पारख गोत्रीय जीतमलजी के पुत्र रूप में इनका जन्म संक्त् १९१८ में हुआ । इनका जन्म नाम चुन्नीलाल था । इनकी बड़ी बहन पन्ना बाई थी, जो कि दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् पुण्यश्रीजी के नाम से प्रसिद्ध हुई थी । अपनी बड़ी बहन पुण्यश्रीजी के प्रयत्न से ही चुन्नीलाल जी ने संवत् १६५२ ज्येष्ठ सुदि सातम को भगवानसागरजी के पास दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा नाम रखा गया त्रैलोक्यसागर । महातपस्वी छगनसागरजी का स्वर्गवास हो जाने पर एवं अपने बड़े गुरु भ्राता सुमतिसागरजी का आदेश प्राप्त कर इन्होंने समुदाय का आधिपत्य स्वीकार किया। सं० १९६६ में आपका कोटा में चातुर्मास हुआ । वहाँ ज्ञानसुधारस धर्म सभा की स्थापना की । परासली तीर्थ यात्रा हेतु डग, गंगधार और सीतामहु से तीन संघ निकलवाये । संवत् १६७० में विमलश्रीजी के प्रयत्न से जैसलमेर का संघ निकलवाया । सुजानगढ़ प्रतिष्ठा में सम्मिलित हुए । लोहावट में छगनसागर जैन पाठशाला खुलवाई । संवत् १६७४ श्रावण शुक्ला पूर्णिमा को लोहावट में आपका स्वर्गवास हुआ। आपके समय में इस समुदाय की साधुसाध्वियों की संख्या में काफी अधिक वृद्धि हुई । (११) जिनहरिसागरसूरि इनका जन्म नागौर जिले के रोहिणा गाँव में संवत् १६४६ मिगसर सुदि सातम को हुआ था । इनके पिता जमींदार झूरिया जाट हनुमन्तसिंह जी थे और माता थी केसरदेवी । इनका जन्म नाम हरि सिंह था । ये पांच भाइयों में तीसरे नम्बर के थे । भगवानसागरजी म. के ये भतीजे होते थे । भगवान सागरजी ने अन्तिम समय में अपनी इच्छा छगनसागरजी के सम्मुख जाहिर की थी कि 'इसको योग्य समय पर दीक्षा दे देना' तदनुसार निर्देश का पालन करते हुए छगनसागरजी ने संवत् १६५७ आषाढ़ वदि पाँचम के दिन फलौदी में दीक्षा प्रदान की और दीक्षा नाम रखा हरिसागर तथा भगवानसागरत्री का शिष्य घोषित किया । संवत् १९७४ में गणाधीश त्रैलोक्यसागरजी का स्वर्गवास हो जाने पर इन्होंने समुदाय का नेतृत्व संभाला । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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