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________________ प्रस्तुत अभिनन्दनग्रन्थ में विविध स्थलों में इन विषयों पर जो ऊहापोह हुआ है, यह वास्तव पठनीय है। "चरत भिक्खवे । चारिकां बहुजनहिताय बहुजनसुखाय कल्लानाय दैवमानुसानं । । - तथागत भगवान् बुद्ध की यह उक्ति मुनिवर्य के जीवन में सर्वथा सार्थक सिद्ध हुई । राजस्थान की वीर प्रसविनी, संत-प्रसविनी पुण्य धरा में तो, जहाँ आपका जन्म हुआ, आपने ग्रामानुग्राम, नगरानुनगर जन-कल्याण का महान् लक्ष्य लिये विहरण किया ही, किन्तु उसके अतिरिक्त हरियाना, पंजाब, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश आदि में भी जो आध्यात्मिक विजय- वैजयन्ती संस्फुटित की, वह आपके श्रमणोचित महान् लक्ष्य की संपूर्ति का अविस्मरणीय उदाहरण है। उत्तर एवं दक्षिण भारत भाषा, वेषभूषा, आदि की दृष्टि से भिन्न होते हुए भी सांस्कृतिक, धार्मिक एवं आध्यात्मिक एकता के सूत्र में आबद्ध है । वैदिक संस्कृति के साथ साथ श्रमण-संस्कृति भी प्राचीन काल से जहाँ पल्लवित, पुष्पित एवं विकसित होती रही है । मुनिवर्य ने उत्तर भारत के विविध अंचलों में पर्यटन तथा प्रवास करने के अनन्तर दक्षिण की ओर प्रयाण किया। महाराष्ट्र, आन्ध्र, कर्नाटक तथा तमिलनाडु आदि विभिन्न प्रदेशों में धर्म प्रसार करते हुए जन-जन में आर्हत संस्कृति, सदाचार एवं व्रतमय जीवन के जो दिव्य संस्कार ढाले एवं ढाल रहे हैं, वह यहाँ के शताब्दियों पुराने गौरवमय जैन इतिहास का एक प्रकार से पुनरावर्तन कहा जा सकता है । दक्षिण प्रवास के बीच चेन्नई महानगरी को इन महामहिमान्वित श्रमण - मूर्धन्य का जो चिर सान्निध्य प्राप्त हुआ है, हो रहा है, वह यहाँ की सांस्कृतिक गरिमा के सर्वथा अनुरूप है। जनपद-विहार एवं लोक-जागरण के अतिरिक्त स्वान्तः सुखाय के साथ साथ जन-जन में उदात्त मानसिकता आविष्कृत करने हेतु आपने साहित्यिक प्रणयन के रूप में जो वाङ्मयी सृष्टि की, वह आपके प्रज्ञा एवं प्रतिभामय कृतित्व का वह उज्जवल पक्ष है, जिसमें सत्-चित्- आनन्द के दर्शन होते हैं, जीवन-वृत्त, तत्व- चिन्तन, सिद्धान्त-दर्शन आदि विविध विधाओं में आपकी रचनाएँ ऐसी लोकजनीनता, सरलता एवं सुबोध्यता लिये हुए हैं, जिससे सर्व साधारण जिज्ञासुवृंद का बहुत बड़ा उपकार सधा है, सधता रहेगा। क्योंकि साहित्य तो वह भाव निश्चयोतित अमृत हैं, जो पाठकों और श्रोताओं के मन में नव जीवन का संचार करता है । कितना बड़ा आश्चर्य है, महामना सुमन मुनिजी म.सा. का जीवन अनेकानेक दुर्लभ विशेषताओं का अद्वितीय संगम है। उपर्युक्त वैशिष्ठमूलक जीवन-क्रमों के साथ साथ सेवा भावना भी आपकी रग-रग की अनुस्यूत है, जिसका प्राकट्य समय-समय पर संतों के वैयावृत्त्य के रूप में होता रहा है। “सेवा-धर्मः परमगहनो योगिनामप्यगम्य” – योगिराज भर्तृहरि द्वारा प्रतिपादित योगियों के लिए भी दुर्लभ - दुःसाध्य सेवा धर्म की गहनता अत्यन्त सहजता और सुकरता के रूप में परिणति पा सकी, यह कोई कम आश्चर्य की बात नहीं है । प्रस्तुत ग्रन्थ में आपके उज्ज्वल, धवल, निर्मल, इन्द्रधनुषी व्यक्तित्व का विविध अध्यायों में जो विवेचन हुआ है, वह एक ऐसे निःस्पृह अध्यात्मयोगी के जीवन का शाश्वत मूल्य परक दस्तावेज है, जो मानव मेदिनी को विपथगामिता से अपाकृत कर सुपथ-गामिता की दिशा में अग्रसर होते रहने की न केवल प्रेरणा ही प्रदान करेगा अपितु एक सुधा-संसिक्त पाथेय का भी काम देगा । प्रस्तुत ग्रन्थ पाँच खण्डों में विभाजित है । इसके प्रथम खण्ड में आचार्यों, संतों, विद्वज्जनों, जन नेताओं एवं समाजसेवियों के संदेश, अभिनन्दनोंद्गार, चरितनायक के जीवन की विशेषताओं को उद्घाटित करने वाली Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012027
Book TitleSumanmuni Padmamaharshi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadreshkumar Jain
PublisherSumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
Publication Year1999
Total Pages690
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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