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________________ स्व० पण्डित बाबूलालजी : मेरे विद्यागुरु ६५ लिए मोरैना चले गये। उन दिनों मोरैना में गुरुवर पं० गोपालदासजी बरैया दिगम्बर जैन समाज के सर्वोपरि मान्यता प्राप्त, प्रसिद्ध और सेवाभावी विद्वान् थे। ज्ञानपिपासा शान्त करने के लिए उनके पास बहुत दूर-दूर से लोग आते थे। मोरैना से वापिस आकर पं० बाबूलालजी ने अपनी आजीविका के लिये कटनी में ही टोपियों की दुकान खोल ली। तब मेरे पिताजी के अनुरोध पर पं० कुन्दनलाल जी सरकारी सर्विस छोड़कर पं० बाबूलालजी के स्थान पर, कटनी पाठशाला के प्रधान अध्यापक पद पर आए। पं० कुन्दनलाल जी ट्रेण्ड अध्यापक थे। शासकीय सेवा में उनकी अच्छी प्रतिष्ठा थी। मैं मोरना तथा बनारस से अपनी शिक्षा पूरी करके सन् १९२३ में कटनी आया और इसी पाठशाला में अध्यापक का कार्य करने लगा। कालान्तर में यहीं प्रधानाध्यापक बन गया। पं० कुन्दनलाल जी ने शिक्षिकीय कार्य छोड़ दिया और अपना निजी व्यवसाय करने लगे। ० बाबूलाल जी व्यापार में संलग्न हो जाने पर भी इस पाठशाला की उन्नति के लिए सदा प्रयत्नशील रहे। संस्था के लिए जब जो सहयोग चाहा गया, वह उनकी ओर से उपलब्ध होता रहा। वे इस संस्था के लिए सि० कन्हैयालाल जी एवं सि० रतनचंद जी को सदैव दान देने की प्रेरणा करते रहते थे। पाठशाला का विस्तार होता गया। छात्रावास का अभाव खटकने लगा और विद्यालय के लिये भी स्थान की कमी पड़ने लगी। तब नवीन भवन के लिए शासन से उपयुक्त जमीन की प्राप्ति के लिए मैंने प्रयास किगा। पं बाबूलाल जी ने इसमें मुझे पूरा सहयोग दिया। भूमि प्राप्त हो जाने के उपरान्त मैंने संस्था के भवन निर्माण के लिए मिर्जापुर निवासी सिं० हीरालाल कन्हैयालाल जी से दान का अनुरोध किया। सिंघई जी से इस दान की स्वीकृति दिलाने में भी पं० बाबूलाल जी का महत्वपूर्ण सहयोग रहा । सिंघई जी से उनके परिवार का कुछ रिश्ता भी था। अत: उनके सहयोग से हम मिर्जापुर वालों से दान की स्वीकृति पाने में सफल हुए। इस प्रकार मिर्जापुर वाले सिंघई हीरालाल कन्हैयालाल जी ने संस्कृत विद्यालय और छात्रावास के लिए अपनी ओर से पूरा भवन बनवाकर समाज को समर्पित किया। आज कटनी नगर के बीचोंबीच यह विशाल और आकर्षक दो मंजिला भवन, कचहरी के ठीक सामने अपना सिर ऊँचा किये हुए, अपने निर्माता की कीर्ति का उद्घोष करता हआ शान से खड़ा है। जैन शिक्षा-संस्थान के छात्रा और संस्कृत-शिक्षा आदि सब विभाग उसी में चलते हैं। इस प्रकार मुझे यह स्वीकार करने में गौरव की अनुभूति होती है कि कटनी की जैन शिक्षा-संस्था के संचालन में, और उसकी चहुंमुखी अभिवृद्धि में, मुझे अपने प्रारम्भिक विद्यागुरु स्व० पं० बाबूलाल जी का मार्गदर्शन प्राप्त हुआ। वास्तव में उन्हीं की सहायता, सहयोग और आशीर्वाद से ही मुझे अपने प्रयत्नों में बराबर सफलता मिलती रही, अतः मैं उनके परमोपकार का सदा ऋणी हूँ। पण्डित जी ने जीवन के अंतिम समय में इस संस्था के बारे में यह पत्र लिखकर, जैन पत्रों में प्रकाशित कराने के निर्देश के साथ मेरे पास भेजा था। इस पत्र में कुछ ऐसी भी घटनाओं का उल्लेख था जिनके बारे में पहले मुझे भी पता नहीं था। परन्तु वह मेरी प्रशंसा से भरा था, इसलिए मैंने उसे प्रकाशित नहीं कराया। पनागर में सन् १९६८ में, ८३ साल की आयु में पण्डित बाबूलाल जी का देहावसान हआ। संस्था के प्रति उनकी सेवायें तथा अपने प्रति उनका स्नेह एवं उपकार-मेरी स्मृति में आदरपूर्वक चिर-स्थायी हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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