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________________ ५८ पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ [खण्डं पनागर (जबलपुर) में विमानोत्सव था। वहां भी मेरी एक चचेरी बहिन ब्याही थी। मेरे पिता उस उत्सव में आये थे। मैं छोटा था, सो साथ ही था। इस समय यह प्रथा थी कि अन्य छोटे ग्रामों की जैन पाठशालाओं के बालक ऐसे महोत्सवों पर आते थे और कोई विशिष्ट लोग उनकी धार्मिक परीक्षा लेते तथा पारितोषिक भी दिया करते थे । यही परीक्षालय था और अन्य कोई व्यवस्था नहीं थी। मेरे पिता के मौसेरे भाई कटनी में रहते थे। वे पांच भाई थे। उनमें ज्येष्ठ थे कन्हैयालाल (दादा), दसरे गिरधारी लाल जी जो उस समय दिवंगत हो चुके थे। तीसरे रतनचन्द जी (लाला जी के नाम से विख्यात थे), चौथे थे दरबारीलाल जी। पाँचवें परमानन्दजी। इनमें रतनचन्द जी उस महोत्सव में आये थे। वहाँ उपस्थित छात्रों की परीक्षा हुई। मैंने पिंडरई में रत्नकरण्डश्रावकाचार की मात्र गाथाएँ याद की थीं। उनका शीर्षक यदि आप बोलेंगे, तो उस श्लोक को सुना सकता था, पर अर्थ समझाने समझने की योग्यता न थी। मुझसे चार बार प्रश्न किए गये। मैंने चारों बार के उत्तरस्वरूप श्लोक सूना दिए, तो श्री रतनचन्द जी ने एक रुपया मुझे दिया। कटनी के इन सभी पांचों भाइयों से मेरे पिता उम्र में ज्येष्ठ थे। अतः उन्हें सब "वीर" नाम से संबोधित करते थे। श्री रतनचंदजी ने मेरा परिचय पूछा । उन्हें जब ज्ञात हुआ, तो मेरे पिता जी से कहा, 'वीर, जब भाभी दिवंगत हो गई और आप व्रती ब्रह्मचारी हो गये, तब इस बालक को साथ-साथ लेकर कहाँ फिरोगे? इसे हमें दे दो, हम इसकी शिक्षा-दीक्षा का सब प्रबंध करेंगे, आप निर्विकल्प होकर अपना व्रती जीवन बितावें। आप भी कटनी ही रहें। मेरे पिता कुछ समय कटनी रहे और मेरे लालन-पालन की सम्पूर्ण व्यवस्था देखकर निराकुल हुए। उन्होंने देखा कि त्यागी ब्रह्मचारी जो धार्मिक उत्सवों में आते हैं, वे मैले-कुचले कपड़ों में होने से तथा शिक्षा की कमी से भी समाज में अपमानित ही होते हैं। खर्च भी समाज से माँगते हैं। यह दुर्दशा देखकर विचार किया कि त्याग का मार्ग अप्रशस्त और अनादृत हो रहा है। अतः उन्होंने एक त्यागी उदासीन आश्रम की स्थापना की कल्पना की और शीघ्र ही कुंडलपुर में उसकी स्थापना की जो आज भी संचालित है। में भी आजकल उसी आश्रम में रहता है। अब आश्रम में जो भी त्यागी ब्रह्मचारी है, वे सब अपना खर्च स्वयं वहन करते हैं। आश्रम पर उनका व्यय-भार नहीं है। मात्र रसोई वाली बाई आश्रम फंड से रखी गई है। मध्यकाल में मेरे पिता के सामने १४/१५ गृहत्यागी रहते थे, जो ग्राम - ग्राम जाकर धर्माचरण की शिक्षा देते थे। उस समय बुन्देलखंड में काफी धर्माचरण का प्रचार हुआ, जो आज भी पाया जाता है। पूज्य पं० गणेश प्रसाद जी उस समय तक पण्डित तो थे, ब्रह्मचारी थे. पर व्रती न थे। हमारे पिता जी के ध्यान में आया कि गणेश प्रसाद यदि व्रती हों, तो धर्म प्रचा में उत्तम हो सकता है। कारण पाकर पं० जी के मन में भी यही ध्यान आया। वे सागर से कुंडलपुर को रवाना ए और मेरे पिता जी कुंडलपुर से सागर को। मध्य में दमोह धर्मशाला में दोनो की मुलाकात हो गई और दोनों कुंडलपुर आ गये। बड़े बाबा के समक्ष उन्होंने हमारे पिता से सप्तम प्रतिमा की दीक्षा ली और पूज्य वर्णी जी के नाम से प्रसिद्ध हुए। उनके पवित्र जीवन को व ज्ञान व समाज की अद्भुत कहानी सम्पूर्ण जैन समाज में सुप्रसिद्ध है। मैं कटनी पाठशाला में पढ़ता रहा । ११ साल की उम्र में मेरे पिता ने मुझे मथुरा में भर्ती कराया और स्वयं मोरेना पं० गोपाल दास जी के पास छः माह गोम्मटसार का अभ्यास करते रहे। मैं आठ मास बाद कटनी आ गया और वहाँ जैन पाठशाला में रहा । १५ वर्ष की उम्र में पुनः मोरेना विद्यालय में प्रवेश किया। वहाँ तीन वर्ष तक विशारद तृतीय खंड तक की परीक्षा दी। मोरेना सिद्धांत विद्या का गढ़ था। उसी की मुख्यता थी। मेरा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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