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________________ ५० पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ [खण्ड श्री ब्रजलाल जी छतरपुर (१७७४- ) विद्वत् परम्परा में छतरपुर नगर के श्री ब्रजलाल जी का भी महत्वपूर्ण स्थान है। इनका जन्म सन् १७७४ में हआ था। पिता का नाम सल्ले था। आप कपड़े का व्यापार करते थे और टोपियाँ बनाने का कारखाना भी था। आप कुशल वैद्य थे। आप का स्वभाव विनोदी था और ज्योतिष में आपकी रुचि थी। धर्म में प्रकाण्ड श्रद्धा थी। समैया होते हये भी मूर्ति पूजा में विश्वास रखते थे। अपने दैनिक कार्यों के अलावा जो समय बचता था, उसमें आप शास्त्रों का लेखन करते थे। आप अच्छे कवि और नाटककार के रूप में जाने जाते रहे हैं। आप द्वारा रचित दशहरे का बलिदान नाटक से प्रभावित होकर तत्कालीन राजा श्री विश्वनाथ सिंह ने तालाबों में मछली मारना, शिकार-खेलना, बलिदान, धार्मिक पर्वो पर वधशालाओं को बन्द रखने का आदेश प्रसारित किया था। आप अच्छे समाज सुधारक भी थे। समाज में फैली कुरीतियों के निवारणार्थ उन्होंने साहित्य का सृजन किया। कवि की रचना वनिता-विहार कुरीतियों के निवारणार्थ गीत, दादरा, गजल, बनरा आदि का संग्रह है। ब्रज लाल जी के समय में विवाह आदि के अवसर पर कुछ ऐसी कुरीतियां थीं जो द्रव्य खर्च होने के साथ ही अशोभनीय भी लगती थीं। इनका उन्होंने जोरदार विरोध किया है। कवि ने बाल-वृद्ध-विवाह और कन्या-विक्रय का भी विरोध किया है। आभूषण प्रिय नारी के लिए सच्चे आभूषण क्या हैं, इस पर भी कवि ने लिखा है। कवि तारण पंथ को मानने वाला था। अतः तारण स्वामी के ग्रन्थों में भी शंका होने पर उसके सम्बन्ध में भी कवि ने लिखा है। कवि ने पर स्त्री-सेवन जैसे दुष्कर्मों के प्रति भी आगाह करते हुये चेतावनी दी है। कवि राष्ट्र प्रेमी भी थे। इनकी दशहरे का बलिदान नामक रचना राष्ट्र-प्रेम से ओत-प्रोत है। कवि की अन्य स्फुट रचनायें भी हैं जो सभी धार्मिक भावना से ओतप्रोत समाज सुधार की ओर अग्रसर हैं । पं० गोरेलाल जी शास्त्री ( १९०८ सन् १९०८ में पं० गोरेलाल जी शास्त्री का जन्म पावन भूमि सिद्ध-क्षेत्र द्रोणगिरि में हुआ। आप दो भाई और एक बहिन हैं। जेष्ठ श्री विहारी लाल जी तथा बहिन का स्वर्गवास हो गया है। आपके पिता श्री भूरे लाल जी थे। प्रारंभिक शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात साढ़मल, ललितपुर तथा इन्दौर के जैन विद्यालयों में शिक्षा ग्रहण की। बुन्देलखण्ड के आध्यात्मिक संत पूज्य गणेश प्रसाद जी बर्णी के सम्पर्क में आने पर सन् १९२८ में प्रान्त में व्याप्त अज्ञान अन्धकार को मिटाने के लिए सिद्धक्षेत्र द्रोणगिरि में पूज्य वर्णी जी ने गुरुदत्त दि. जैन संस्कृत विद्यालय की स्थापना की और उसके संचालन का भार आपके सबल कन्धों पर रखा। आप उत्साही, सुयोग्य विद्वान् तो थे ही, ज्ञान-पिपासु होने के कारण ज्ञानार्जन कैसे-किस प्रकार किया-कराया जाता है, यह आप जानते थे। अतः आपने बड़ी ही योग्यता और उत्साह के साथ विद्यालय का संचालन किया। परिणाम स्वरूप. थोड़े से समय में ही विद्यालय लोकप्रिय हो गया और शिक्षा प्राप्त करने के लिए छात्रों की एक खासी भीड आने लगी। आपने स्थापना काल से सन् १९६४ तक विद्यालय में प्रधानाचार्य के पद पर रह कर सैकडों विद्वानों को तैयार किया है। आपने न केवल शिक्षा के क्षेत्र में ही कार्य किया है, अपितु सामाजिक उत्थान के क्षेत्र में भी प्रारंभ से कार्य किया और प्रान्त में व्याप्त कुरीतियों, मरण भोज, बाल-विवाह, वृद्ध-विवाह, दहेज-प्रथा आदि को भी दृढ़ता से दूर करने में अपना योगदान दिया। द्रोण प्रान्तीय सेवा परिषद् के माध्यम से आपने प्रान्त में समाजोत्थान के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण कार्य किये हैं। पंडित जी प्रतिभाशाली रहे हैं। काव्य प्रतिभा जन्मजात होने के कारण आपने साहित्य के क्षेत्र में कम कार्य नहीं किया । आपने बारह भावना, जैन गारी संग्रह, सुमन संचय, द्रोणगिरि पूजन, भक्ति पीयूष, द्रोणगिरि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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