SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 70
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विन्ध्य क्षेत्र के जैन विद्वान्-१. टीकमगढ़ और छतरपुर कमलकुमार जैन छतरपुर स्वतन्त्रता प्राप्ति के उपरान्त छोटी रियासतों के संघ में विलीनीकरण योजना के अन्तर्गत बुन्देल खण्ड और बघेल खण्ड की ३६ रियासतों को मिलाकर १९४८ में विन्ध्य प्रदेश का निर्माण हुआ था। इसमें रीवा, सतना, शहडोल, सीधी, पन्ना, छतरपुर, टीकमगढ़ और दतिया के आठ जिले समाहित हए। विन्ध्य क्षेत्र के सांस्कृतिक विकास में जैन धर्म और संस्कृति का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। बुन्देल खण्ड क्षेत्र के छतरपुर, टीकमगढ़ और पन्ना जिले तो इस दृष्टि से विपुल भण्डार के स्रोत है। जहाँ छतरपुर जिले में द्रोणगिरि, रेशंदीगिरि के समान तीर्थभूमियाँ है, वहीं वहाँ खजुराहो जैसे विश्वविख्यात कलातीर्थ भी हैं। उदमऊ, धबेला, जगत सागर, छतरपुर, जचट्ट आदि में विपुल जैन पुरातत्त्व उपलब्ध हो रहा है। टोकमगढ़ जिले में भी पपौरा, अहार, बड़ा गांव आदि तीर्थभूमियों के अतिरिक्त भूदौर आदि स्थानों पर जनमतियाँ पर्याप्त स्थानों पर आज भी बिखरी पड़ी है। पन्ना जिले में सीरा पहाड़ी, सलेहा, अजयगढ़ आदि ऐसे स्थान हैं जहाँ विपुल जैनमूर्तियाँ हैं । इस क्षेत्र के जैन-पुरातत्वी होने के कारण इस क्षेत्र में जैन बिद्वानों के अस्तित्व का अनुमान सहज ही होता है। छतरपुर एवं टीकमगढ़ ऐसे जिले है जहाँ प्रायः ग्रामानुग्राम में जैन मन्दिर और समाज पायी जाती है। इससे भी अनुमान लगता है कि इस क्षेत्र में जैन विद्वान् पर्याप्त मात्रा में होने चाहिए । इनके विवरण के संकलन के लिए पर्याप्त समय एवं शोध की आवश्यकता है। प्रस्तुत विवरण इस दिशा में कार्य करने की प्रेरणा देगा, ऐसा विश्वास है । इस लेख में टीकमगढ़ एवं छतरपुर जिले के कुछ विद्वानों का विवरण देने का प्रयत्न कर रहा हूँ। टीकमगढ़ के जैम विद्वान : (१) पंडित देवीदास जी टीकमगढ़ जिले को जैन विद्वानों की खान माना जाता है। पिछले तीन सौ वर्षों के इतिहास को देखने पर यहाँ अनेक बिद्वानों का पता चला है। ये प्रतिभा के धनी थे। इन्होंने जैन साहित्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य कर सम्माननीय स्थान प्राप्त किया है। टीकमगढ के विद्वानों में सर्वप्रथम श्री देवीदासजी का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। इनका जन्म इस जिले के दिगौड़ा ग्राम में हुआ था। इनका विशेष परिचय उपलब्ध नहीं है। फिर भी, इन्होंने जीव चतुर्भेदादि बत्तीसी की रचना १७५३ ई० में की थो। यह उनको पहलो रचना मानी जाती है। इतना तो निश्चित है कि इस समय कवि की आयु लगभग २०-२५ वर्ष की रही होगी। अतः उनका जन्म १७२८-३३ के बीच हुआ होगा। ग्रन्थकार की अन्तिम रचना प्रवचनसार पद्यानुवाद है । इसे १७६७-६८ में समाप्त हुआ बताया गया है। इसमें ही ग्रन्थकार ने अपना परिचय दिया है। ये गोलालारे जाति के श्री सन्तोषमनजी के सुपुत्र थे। देवीदासजी की रचनायें विविध रूप में हैं। जब तक इनकी २९ रचनायें प्राप्त हुई है। इनमें पूजन, भजन की अनेक रचनायें हैं। इनकी चतुर्विशति जिनपूजन नामक रचना द्रोणप्रांतीय नवयुवक सेवा संध, द्रोणगिरि (छतरपुर) ने प्रकाशित की है। इनकी रचनाओं में जीव चतुर्भेदादि बत्तीसी, परमानन्द स्तोत्र, जिन अन्तरावली, धर्म पच्चीसी, पंचपद पच्चीसो, पुकार पच्चीसी, वीतराग पच्चीसी, दर्शन छत्तीसी, अड़तीसी, बुद्ध बाबनी, तीन मूढ़ता, देवशास्त्र गुरु पूजा, शीलांग चतुर्दशी, सप्त व्यसन कवित्तं, दशधा सम्यक्त्व त्रयोदशी, विवेक बत्तीसी, स्वजोग राछरो, भवानराबली, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy