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________________ १] (१) अधिकांश अच्छे विद्वानों का पारिवारिक जीवन कष्टमय रहा । (२) अधिकांश अच्छे विद्वानों ने अपनी आजीविका हेतु द्वितीयक स्रोत के रूप में विभिन्न साहित्यिक, सामाजिक संस्थाओं को भी अपनी सेवाएं देने की प्रक्रिया अपनाई । लगने लगा । (३) एक समय ऐसा आया कि ये द्वितीयक स्रोत व्यक्तिनिष्ठ हो गये । इनमें नये लोगों का प्रवेश असम्भव-सा (४) पण्डित ने रुचि के अनुरूप कथनों एवं का भी उन्हें आभास मिला। बौद्धिक जड़ता के अनुयायी बन गये । जैन पंडित परंपरा : एक परिदृश्य ४१ देखा कि समाज के कर्णधार मुख्यतः धनपति ही होते हैं । उन्होंने अनुभव किया कि उनकी प्रवृत्तियों से ही जीविका चालू रखी जा सकती है। परिवर्तन या नवीनता के प्रति अरुचि इसी के अनुरूप उन्होंने व्यवहार करना प्रारम्भ किया । वे स्थितिस्थापकता के पोषक एवं (५) पण्डित ने पराश्रितता को तो अपनी नियति माना पर उन्होंने अपनी सन्तति को इस स्थिति से उभारने का दृढ़ अन्तःसंकल्प लिया | इसके फलस्वरूप पण्डितों की सन्ततियों के ९७% ने व्यवसायों की पैतृकता को भारतीय परम्परा को अस्वीकार किया । यह स्थिति पण्डित पीढ़ी के ह्रास का प्रमुख कारण है । वह अधिक नास्तिक एवं भौतिक बनी । (६) अपने कुण्ठा एवं अभावग्रस्त जीवन के अभिशाप के कष्टों के अनुभव से इस क्षेत्र में आने के लिए प्रेरित नहीं किया । वे इस प्रक्रिया में धर्म-अधर्मं द्रव्य के समान फल हुए : (अ) किसी भी पण्डित का कोई योग्य उत्तराधिकारी न बन सका ! (ब) इस कारण पण्डितों का अपने-अपने क्षेत्रों में एकाधिपत्य तो हुआ पर भविष्य अन्धकारमय इस स्थिति में नई पीढ़ी मध्यस्थ हो गई । पण्डित जनों ने किसी को भी उदासीन बने रहे। इसके अनेक (स) समुचित प्रेरणा के अभाव में नई पीढ़ी ने आजीविका के अधिक उपयोगी क्षेत्र चुनने की स्वतंत्रता ली । (७) विद्यमान पीढ़ी द्वारा प्रेरणा के अभाव एवं वर्तमान परिवेश में समाज से समुचित जीविका की प्रत्याशा के अभाव की आशंका से समाज द्वारा स्थापित सागर, काशी, बीना आदि की संस्थाओं की हरियाली सूखने लगी । इस समय या तो वे भग्नावशेष हो रही हैं या दिशा बदल रही हैं । Jain Education International गया । (८) इन परिणामों के अपवाद में भी कुछ लोग पाये जाते हैं । इनकी सेवायें भी सामान्य पण्डितों की अपेक्षा अधिक स्थायी कोटि की मानी जाती हैं । इन परिणामों के परिप्रेक्ष्य में यदि हमें धार्मिकता एवं सामाजिकता की ज्योति प्रज्वलित रखकर जीवन को प्रगत बनाता है, तो हमें पण्डित परम्परा को सुरक्षा एवं संवर्धन को बात सोचनी होगी । हमें उपरोक्त परिणामों का विश्लेषण कर ऐसी प्रक्रिया निर्धारित करनी होगी जो इस परम्परा को क्षोण होने के कारणों का निराकरण कर सके । For Private & Personal Use Only यह प्रसन्नता की बात है कि इस ओर कुछ संस्थाओं का ध्यान गया है । वे नियमित संस्थाओं एवं अल्पकालिक शिविरों के माध्यम से बीसवीं सदी के आठवें दशक के उत्तरार्ध की पण्डित पोढ़ी तैयार कर रही हैं। उन्हें आर्थिक स्वावलम्बन का आश्वासन भी दिया जा रहा है । इस पोढ़ी के अगणित पण्डित आपको भाद्रपद मास में तथा अन्य अवसरों पर भारत के कोने-कोने में धर्म ध्वज फहराते मिलेंगे। समाज में अनेक क्षेत्रों में इस पीढ़ी के प्रति आक्रोश भी व्यक्त किया जा रहा है । अनेकान्त सिद्धान्त के मानने वाले घोर एकान्तवाद का आश्रय लेकर मतभेदों की तीव्रता पर ६ www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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