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________________ ३८ पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ [ खण्ड इस युग की अन्तिम पांच विभूतियां बीसवीं सदी की दिगम्बर पण्डित परम्परा की स्थापक है। इन्होंने न केवल बनारस, जयपुर या अन्य स्थानों की संस्थाओं में अध्ययन अध्यापन ही किया, अपितु अनेक धार्मिक एवं सामाजिक संस्थाओं का निर्माण एवं सञ्चालन भी किया। इनकी आजीविका का प्रमुख स्रोत भी समाज-सेवा ही रहा। बीसवीं सदी के विश्रत जैन विद्या मनीषी इनकी शिष्य-परम्परा में ही आते हैं। इन्होंने अनेक प्रकार की सामाजिक व धार्मिक प्रवृत्तियों को प्रतिष्ठित करने में अपना अमूल्य योगदान किया है। ये उत्तम व्याख्याकार एवं भाषा टोकाकार भी रहे है । इनमें से कुछ विभूतियों ने पूर्ववर्ती स्वान्तःसुखाय की पण्डित परिभाषा से संक्रमण किया और आजीविका-सुखाय की परिभाषा को मूर्तरूप दिया। इससे इनकी स्वयं की प्रतिष्ठा में चार चाँद तो अवश्य लगे, पर इनका परिवार और पारिवारिक जीवन किन परिस्थितियों में रहा, यह अनुभव की ही बात है। इनके केवल एक पण्डित के पुत्र ने ही सामाजिक संस्थाओं में आजीविका ग्रहण की। अन्य की सन्तानों ने अधिक उपयोगी एवं आधुनिक क्षेत्र को आजीविका हेतु चना। बीसवीं सदी आते-आते पण्डितों का कार्य-क्षेत्र काफी बढ़ गया। अनेक सामाजिक एवं शिक्षण संस्थाओं. क्षेत्रों तथा अन्य प्रवृत्तियों को चलाने के लिये पण्डितों की आवश्यकता अनुभव की गई। जैनों पर नास्तिकता के प्रहार भी, अनेक ओर से, इस सदी के पूर्वार्ध में हुए । यह समय था जब पण्डितों को अपनी विद्वत्ता एवं चतुरता का प्रदर्शन करना पड़ा एवं जैनों के जैनत्व की सुरक्षा एवं प्रभावना करनी पड़ी। शास्त्रार्थ संघ का निर्माण इन विद्वानों ने ही किया था जो बाद में दि० जैन संघ में परिणत होकर आज भी एक जीवन्त संस्थान के रूप में काम कर रहा है। पण्डितों की इस का ही यह फल है कि आज जैन विद्याओं और उनके इतिहास की ओर देश-विदेशों में पर्याप्त अनुसन्धान किये जाने लगे हैं। तीसरे युग में पण्डित पीढ़ी के कार्यों में बड़ो व्यापकता आई। सामान्य पण्डित का सारा समय समाज में धार्मिक शिक्षा प्रदान करने, स्वाध्याय या शास्त्र-सभा करने, धार्मिक अनुष्ठान या सामाजिक क्रियाकलापों को सम्पन्न करने, साहित्य के भाषान्तर एवं सूजन करने एवं आवश्यकता पड़ने पर धर्म की सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक सुरक्षा एवं प्रभावना करने में लग जाता है । इसी से समाज की सामाजिक्ता तथा एकरूपता बनी हुई है। इन सभी कार्यों के लिये समाज ने पण्डितों की सेवायें ग्रहण की (कभी-कभी उन्होंने स्वयं भी दी, पर ऐसे प्रकरण अपवाद है)। परन्तु समाज ने उनको समुचित आजीविका-साधनों के विषय में ध्यान से नहीं सोचा । शास्त्री के अनुसार पण्डित मसालची के समान बने रहे जो स्वलाभ न लेकर दूसरों को लाभान्वित करने में अपना और आश्रितों का पूरा जीवन बेबसी और भटकन में गुजार देते हैं। अपने कार्यों का सुफल उन्हें सामाजिक भत्र्सना के रूप में मिलता है । सामन्तवादी मनोवृत्ति के अनुरूप उन्हें बाहरी प्रतिष्ठा के बावजूद आन्तरिक वितृष्णा का ही शिकार होना पड़ता है। इसी कारण यह परम्परा जैसे ही बीसवीं सदी के व्यापक परिवेश में विकसित हुई, वैसे ही एक ही पीढ़ी में रूपान्तरित हो गई। इस स्थिति का अनुभव सभी को होने लगा है । फिर भी, इसके सुधार की ओर ध्यान देने का समाज के नेताओं को अवसर ही कहाँ है ? बीसवीं सदी या तीसरे युग की पण्डित पोढ़ी के जैन विद्वानों को स्पष्टतः तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है। पहले वर्ग में काशी, मोरेना, सागर या जयपुर आदि में पढ़े हुए शास्त्रीय विद्वान् आते हैं। ये आज अपने जीवन के सातवें-आठवें दशक में चल रहे हैं। इनमें अधिकांश आगम-पोषी हैं। ये बीसवीं सदी की समस्याओं का उत्तर शास्त्रीय मर्यादाओं में देते हैं। इनकी शास्त्रज्ञता, भाषान्तरण-क्षमता एवं व्याख्यानशैली अनूठी हैं। इनकी आजीविका का मुख्य स्रोत सामाजिक संस्थायें हो रही है। आजकल यह वर्ग दो कोटियों में विभाजित दिखता है। पाश्चात्य विधि शिक्षण में निष्णात लोग उन्हें वह मान्यता नहीं देना चाहते जो समाज उन्हें देती रही है। इस स्थिति को देखकर इस वर्ग के अनेक पण्डित उत्परिवर्तित होकर आगे आये। इन्होंने प्रारम्भ में सामाजिक आजीविका ग्रहण की। बाद में यगानरूप योग्यतायें प्राप्त कर समाजेतर क्षेत्र ग्रहण किया। इससे इनका समाज में जो स्थान था, वह तो रहा हो, अन्य विद्वत् समाज में भी इनकी प्रतिष्ठा बढ़ी । वे आर्थिक दृष्टि से पर्याप्त स्वावलम्बी भी बने । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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