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________________ ४४ पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ [ खण्ड विद्वानों के अनेक मत हैं, फिर भी इसमें कोई सन्देह नहीं है कि यह किसी वृहत्तंत्र से संक्षेपित हुआ है । इसके नाम की व्याख्या निम्न रूपों में की गई है। दुर्गसिंह कु= लघु तंत्र ही का तंत्र है। कुत्सि तंत्र का तंत्र है। कार्तिकेय तंत्र का तंत्र है। दुर्गासिंह कात्यायन तंत्र का तंत्र है। काशकृत्स्न तंत्र का तंत्र है। हेमचन्द्र कालापक तंत्र का तंत्र है। अग्निपुराण, वायुपुराण कुमार-स्कन्द-प्रोक्त तंत्र का तंत्र है। यह स्पष्ट है कि कातंत्र में प्रथम अक्षर के साथ तंत्र शब्द जोड़कर कातंत्र नाम रखा गया है। इससे भिन्नभिन्न मतवादी भिन्न-भिन्न व्याकरणों से इसके संक्षेपण की सूचना देते हैं । कातंत्र व्याकरण किसी वृहत्तंत्र से संक्षेपित किया गया है, यह मान्यता दसवीं सदी के वृत्तिकारों में प्रचलित रहती है। भगवत कुमार कार्तिकेय के द्वारा प्रणोत शास्त्र के बाद उनकी आज्ञा से सर्ववर्मन ने इसे बनाया, इसलिये इसे कौमार तंत्र भी कहा जाता है। इसकी प्रसिद्धि कौमार तंत्र के रूप में मानो जातो है, यह ज्ञातव्य है कि कुमार कार्तिकेय चौरशास्त्राचार्य के रूप में विश्रत है, व्याकरणशास्त्राचार्य के रूप में नहीं। 'कुमार' के भो अनेक अर्थ लगाये गये हैं। कुमारी-सरस्वती से प्राप्त होने के कारण इसे कौमार तंत्र कहते हैं । मोर के पंखधारी को कलाप कहते हैं । त्रिविष्टपी परम्परा के अनुसार कातंत्र का उपदेश मयूरपच्छियों के मध्य किया गया है । जैन साधु मोर-पंखों से बनी पीछी को धारण करते हैं और उपदेश देते हैं। इसलिये इसे कालापक तंत्र भी कहते है। कातंत्र व्याकरण के कर्ता और उसका समय भावसेन ने अपनी 'कातंत्र रूपमाला' में श्री शर्ववर्मन् को कातंत्र व्याकरण का रचयिता माना है । शर्ववर्मा का ही दूसरा नाम वररुचि है। उन्होंने ही ऐन्द्र व्याकरण को संक्षिप्त कर कातंत्र व्याकरण बनाया है। यह त्रिविष्टपोय विद्वत् परम्परा मानती है । दुर्गसिंह ने बताया है कि कातंत्र का कृदन्त भाग वररुचि ने लिखा हैं। वह वातिककार कात्यायन से भिन्न है, उससे परवर्ती है । इन्होंने प्राकृतप्रकाश अन्य भी बनाया है। इनका दूसरा नाम श्रुतिधर भी था । ये तीसरी सदी में हुए थे । महाभाष्यकार शर्ववर्मन के बाद हुए हैं, यह कथन सत्य नहीं है । 'कथासरित् सागर' के अनुसार, प्राकृत भाषावेत्ता सात वाहन की राजसभा में गणाढ्य और सर्ववर्मा नाम के ख्यातिप्राप्त विद्वान थे। इसके ही अनुसार, राजा दोपणि का पुत्र सातवाहन था जो संस्कृत भाषा नहीं जानता था । सम्भवतः यह सिंह की सवारो करता था, इसीलिये इसका नाम सातवाहन पड़ा। [इसके सात वाहन (अश्वादि, सप्तिवाहन) थे, इसलिये भी इसका नाम सातवाहन हो सकता है । ] इसका एक अन्य नाम 'शक्तिवाहन' भी माना जाता है । 'शक्तिहोत्र' शब्द से शक्ति का भी वाहनार्थकत्व सिद्ध होता है। ऐतिहासिक प्रमाणों से पता चलता है कि आन्ध्र के राजाओं ने राज्य का विस्तार किया और 'सातवाहन' पदवी ग्रहण की। इनमें सातकणि द्वितीय छठा सातवाहन राजा हुआ। कथासरित् सागर के अनुसार, इसी का नाम 'दीपणि' रहा है । सातवाहन वंश में सातवा राजा 'हाल' नामधारी हुआ । इसी प्राकृत प्रेमी राजा की राजसभा में गुणाढ्य और शवंवर्मन थे । इसो राजा के राज्यकाल में कातंत्र व्याकरण का निर्माण हुआ। इस राजा का समय प्रथम सदो (२०-२४ ई०) निर्धारित है। इसी का समकालीन शूद्रक नाम का राजा हुआ जिसने पद्मप्राभृत में कातंत्र व्याकरण का उल्लेख किया है । राजा पुष्यमित्र के समकालीन महाभाष्यकार पतंजलि का समय ईसा पूर्व दूसरी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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