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________________ ३२ जगन्मोहनलाल शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ [ खण्ड धर्म और विनय को व्यक्ति से ऊपर रखा। उन्होंने अपने बाद किसी भी शिष्य को संघ का उत्तराधिकारी मनोनीत करने से इन्कार किया और स्वयं को धर्म एवं विनय के शास्ता के रूप में प्रतिष्ठित किया। बुद्ध के शिष्यों में योग्य व्यक्तियों का अभाव नहीं था। उन्होंने स्वयं कई शिष्यों को अपने समकक्ष माना था। बुद्ध के जीवन के अन्तिम दिनों में भी महाकश्यप जैसे महास्थविर विद्यमान थे। इन्होंने ही बुद्ध के महापरिनिर्वाण के शीघ्र बाद ही उनके उपदेशों का संग्रह एवं संगायन कराया। बुद्ध के उपदेश मौखिक थे और संगायन के बाद भी अलिखित रहे। इन उपदेशों को सर्वप्रथम सिंहल में राजा बहुगामिनी अभय ने प्रथम सदी ईसापूर्व में लिपिबद्ध कराया। बुद्ध के जीवनकाल में अनेक बार भिक्षुओं ने अन्य तीथिकों के मत.को बुद्ध उपदेश मानने की गलती की थी। ऐसी गलतियों के निवारण के लिए बुद्ध ने 'महोपदेश' किया, "यदि कोई कहे कि मैंने यह बुद्ध के मुख से सुना है, ग्रहण किया है, तो न उसे प्रसन्नता से ग्रहण करो और न उसका तिरस्कार करो। उसे सूत्र एवं विनय से मिलाकर देखो। यदि वह उनके अनुरूप है, तो ग्रहण करो। यदि वह अनुरूप नहों है, तो समझो कि उस व्यक्ति ने धर्मोपदेश को ठीक से नहीं समझा है।" यह उल्लेखनीय है कि बुद्ध ने अपने मूलभूत उपदेशों को इतना स्पष्ट कर दिया था कि उनके सम्बन्ध में विभेद की गंजाइश ही नहीं थी। फिर भी, बुद्ध के बाद उनके समदाय में जो मतान्तर हए. वे उनके उपदेशों की व्याख्या को लेकर ही हुए। बौद्ध-संघ १८ सम्प्रदायों में विभाजित हआ। लेकिन कोई भी सम्प्रदाय अन्य के धर्म और विनय को बुद्धवचन मानने से इन्कार नहीं करता। बुद्ध ने धर्म को बुद्ध और संघ के ऊपर रखा। उनका धर्म तथागतों द्वारा अनुभूत सनातन मार्ग है जिसका उन्होंने भी साक्षात्कार किया। इसकी तुलना विस्मृत नगर के उत्खनन से की गई है। बुद्ध का स्थान मार्गदर्शी का है, बे दुःखनिरोधगामिनी प्रतिपदा को आलोकित किया करते हैं। इस मार्ग पर आरूढ़ होकर साधक चरमान्त तक पहुँच सकता है । यह अलग बात है कि सम्यक् ज्ञान-मार्ग के अज्ञान से वह ऐसा न कर सके । ऐसी स्थिति में ही बुद्ध और धर्माचाया के निर्देशन एवं प्रेरणा की आवश्यकता होती है । बुद्ध ने अपने शिष्यों से कहा था, "बहुजनों के हित के लिए, बहुजनों के सुख के लिए चारिका करते हुए धर्म को दूसरों तक पहुचाओ।" ये सभी उपदेश भिक्षुओं को लक्ष्य कर दिये गये थे। बौद्ध-स्थविरों ने इन्हें सूत्रबद्ध किया। इस सम्बन्ध में गृहस्थों की भूमिका के सम्बन्ध मे कुछ उल्लेख नहीं मिलता। लेकिन बौद्धधर्म के विकास में बुद्ध को गृहस्थों का पर्याप्त सहयोग मिला। अनेक धनो गृहस्थों और राजाओं के संरक्षण में बुद्ध धर्म का प्रसार हुआ। बुद्ध के महापरिनिर्वाण के कुछ ही समय बाद अजातशत्रु ने बुद्ध के उपदेशों के संग्रह और संगायन के लिए संरक्षण प्रदान किया। महासांधिक सगीति के विवरण में इस काय में गृहस्थों की भूमिका का कुछ उल्लेख है। संघ के प्रथम विभाजन के बाद प्रतिवादियों ने जो संगीति बुलाई थी, उसमें गृहस्थों को भी सम्मिलित किया गया था। यद्यपि वहाँ गृहस्थों की कोटि और भूमिका के सम्बन्ध में विशेष जानकारी नहीं मिलती। सूत्रों एवं शास्त्रों से सम्बन्ध रखने वाले गृहस्थों में अग्रणी देवानांप्रिय प्रियदर्शी अशोक है । उन्होंने बुद्ध के उपदेशों को जगह-जगह उत्कीर्ण करवाया, धर्म को शासन का आधार बनाया और देश-विदेशों में धर्म प्रचार किया। इस दिशा में राजा मिनान्डर का नाम भी उल्लेखनीय है। इनकी जिज्ञासा ने भिक्ष नागसेन के साथ संवाद कराया और 'मिलिन्दपण्हा' जैसी अमूल्य निधि अवतरित हुई । यह प्रथम शताब्दि की रचना मानी जाती है । अन्य बौद्ध देशों में ऐसे अनेक गृहस्थों के नाम गिनाये जा सकते हैं। इनमें एक विशेष उल्लेखनीय नाम जापान के राजकुमार सोतोकु का है। इनके दरबार में ही सातवीं सदी में बौद्धधर्म को राजकीय मान्यता प्राप्त हुई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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