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________________ जैन कवियों द्वारा रचित हिन्दी काध्य में प्रतीक-योजना ४३३ में उसका प्रचार-प्रसार करना अभीष्ट रहा है । यही कारण है कि उन्होंने काव्यकौशल की ओर अधिक जागरूकता का परिचय नहीं दिया है। आध्यात्मिक अभिव्यक्ति को सरल और सरस बनाने के लिए इन कवियों द्वारा लोक में प्रचलित प्रतीकों का सपन्नतापूर्वक प्रयोग हुआ है। अपने समय में काव्य जगत् में प्रचलित काव्यरूपों-छन्दों तथा अलंकारों की नाई इन कवियों ने प्रतीकात्मक शब्दावलि को भी गहीत किया है। पन्द्रहवीं शती के प्रसिद्ध कवि सधारु विरचित प्रद्युम्न चरित्र में अनेक प्रतीकात्मक प्रयोग परिलक्षित है। नायक प्रद्युम्न को जब केवल ज्ञान उत्पन्न हो जाता है उस समय मोह, अज्ञानता का समूल खण्डन करने में वह समर्थ हो जाता है । यहाँ कवि ने तिमिर शब्द का मोह के अर्थ में प्रतीकात्मक व्यवहार किया है । ऐसी स्थिति में सांसारिक लाज से वह मुक्त हो जाता है। इस उल्लेखनीय उपलब्धि पर इन्द्रमाण जयजयकार बालकर बधाइयाँ देते है । यहाँ पाश शब्द का संसार-जाल अर्थात् आवागमन के बन्धन परक प्रतीकार्थ प्रयोग हुआ है । यह प्रयोग हिन्दी संत कवि कबीर तथा भक्त कवि सूर, तुलसी, मीरा आदि के द्वारा प्रचुरता के साथ हुआ है । संसार के लिए सिन्धु शब्द का प्रतीकार्थ प्रयोग हिन्दी में पर्याप्त प्रचलित रहा है। कविवर मेरुनन्दन उपाध्याय विरचित सीमन्दर जिन स्तवन में सिन्धु प्रतीक का व्यवहार परिलक्षित है। इसीप्रकार सभी प्रकार के मनोरथों को पूर्ण करनेवाले भावार्थ में कामघट, देवमणि देवतरु शब्दावलि प्रतीक रूप में व्यवहृत है। हिन्दी में देवतरु के स्थान पर कल्पतरु का खूब प्रयोग हुआ है। इसी प्रकार देवमणि के स्थान पर चिन्तामणि का व्यवहार पर्याप्त रूप में उल्लिखित है। कवि द्वारा इन शब्दावलियों का प्रयोग वस्तुतः नवीन ही कहा जाएगा। विवाहला काव्यों में जैन कवियों ने नायक का किसी कुमारीकन्या के साथ में विवाह नहीं कराया है अपितु दीक्षाकुमारी अथवा संयमश्री के साथ उसे वैवाहिक संस्कार में दीक्षित किया है। यहाँ दीक्षा लेने वाला साधु या नायक .. दुलहा है और दीक्षा अथवा संयमश्री दुल्हन है । जिनोदय सूर कृत विवाहला में आचार्य जिनोदय का दीक्षा कुमारी के साथ विवाह उल्लिखित है । इस अभिव्यक्ति में कुमारी शब्द प्रतीकार्थ है । जैन कवियों का यह प्रयोग वस्तुतः अभिनव है। इसी प्रकार सोलहवीं शती के समर्थ कवि जिनदास हैं, जिन्होंने अनेक सुन्दर काव्यों का सृजन किया है। आदि पुराण नामक महाकाव्य में कर्मभूमि का उल्लेख है । भगवान् ऋषभदेव ने नष्ट कर्मों की स्थापना की थी। उन्होंने सांसारिक प्राणियों को धर्माधर्म का विवेक भी प्रदान किया था। ऐसा करने में उन्हें सफलता इसलिए प्राप्त हुई क्योंकि उन्होंने राजपुत्र होते हुए स्वयं भी संयम और तप-साधना के बलबूते पर मुक्तिवधु को वरण कर लिया था। मुक्ति वरण करने के कारण ही कवि उन भगवान् के गुणों को सद्गुरु के प्रसाद से जान पाता है और तभी प्रसन्न होकर भगवान् में अवसर पाकर सेवा करने की कामना करता है इस आध्यात्मिक तथा भक्त्यात्मक अभिव्यक्ति में कवि ने मुक्ति प्रतीक का सफल प्रयोग किया है । मुक्तिवधु का प्रतीकार्थ प्रयोग संतों द्वारा प्रचुरतापूर्वक हुआ है । इसी प्रकार कवि ने शिवपुर का मोक्ष के लिए प्रतीक प्रयोग किया है। यह वस्तुतः लक्षणामूला प्रतीक प्रयोग है। शिवपुर का प्रतीक प्रयोग यशोधरचरित्र, सिद्धान्त चौपाई में सफलतापूर्वक हुआ है। कविवर बूचराज ने परम्परानुमोदित सागर शब्द संसार अर्थ में अपने पदों की रचना में किया है । हिन्दी के संत कवियों द्वारा सागर शब्द संसार के अर्थ में प्रतीक स्वरूप अनेक बार व्यवहत है। कवि ने षट् लेश्या विषयक प्रतीक प्रयोग पंथी गीत नामक काव्य में किया है। सांसारिक सुख के लिए मधुकण का प्रयोग वस्तुतः जैन कवियों की अभिनव देन है । एक पंथी सिंहों के वन में पहुँचा । मगभ्रम में वह भटक गया और सामने से उसे एक हाथी दिखाई पड़ा। वह रौद्र रूपी तथा क्रोधी स्वभावी था-फलस्वरूप उसे देखकर पंथी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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