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________________ ४२२ पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ [ खण्ड डा० लक्ष्मीनारायण लाल ने आधुनिक वैज्ञानिक युग में धर्म की महत्ता एवं उसके स्वीकार करने पर आवश्यक बल दिया है । उनके 'सूखा सरोवर' नाटक में राज्य की समस्त प्रजा धर्म विरुद्ध हो गयी और सरोवर के सूख जाने पर उसमें जो आवाज निकती है-उसमें जैन चितन की सात्विकता तथा समाजदर्शन की अवधारणा सर्वथा सांकेतिक हो गयी है मैं धर्मराज हूँ इस नगरी का, तुम सब धीरे-धीरे धर्मच्युत हो गये, राजा से तर्क करने लगे तुम, राजा को व्यक्ति मानने लगे तुम ।। दान-पुण्य, लोकाचार, धर्माचार, सबको छोड़ते गये तुम, जो कुछ धर्म था, धर्मजनित कम था, सबसे, सबकी, सब तरह-दौड़ते गये तुम । सबको आडम्बर कहा, सबको अंध ज्ञान कहा, ज्ञानी तुम बन गये, तभी धर्म ने सरोवर को सोख लिया। आज के नाटककारों ने यह सिद्ध कर दिया है कि पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव में आकर आज की नयी पीढ़ी नैतिक मूल्यों के प्रति आस्थावान् नहीं है और उन्हें नैतिकता का चोला व्यर्थ का जंजाल प्रतीत होता है । प्राचीनकाल में विद्यार्थी ब्रह्मचर्य का पालन करते थे परन्तु आज विद्याथियों का नैतिक पतन हो चुका है। डा. लक्ष्मीनारायण लाल के 'सुन्दर रस' नाटक में इसी तथ्य को रेखांकित किया गया है। भगवान् महावीर स्वामी ने 'जागो और जगाओ' का मन्त्र दिया था और वे नारी जाग्रति के पुरोधा बने । सांस्कृतिक पुनरुत्थान तथा राष्ट्रीय आंदोलन इस आयाम को सर्वाधिक व्यापकता प्रदान किया। स्वातंत्र्योत्तर भारत में इस प्रवृत्ति की सम्पुष्टि हुई। महासती चन्दनबाला को इसीलिए नाटकों में बड़ी लोकप्रियता मिली। एक ओर तीर्थंकर महावीर चन्दनबाला को बेड़ियों से मुक्त करते हुए उसे दासी-जीवन से छुटकारा दिलाते हैं तो दूसरी ओर विनोद रस्तोगी के 'नये हाथ' नाटक की शालिनी कहती है-अपने समाज में पत्नी दासी की तरह तो होती ही है । मैं किसी की गुलामी नहीं कर सकती । भगवान् ने स्वतन्त्र पैदा किया है, फिर जानबूझ कर जंजीरों से क्यों बंधू ! __ आज के समाज की प्रमुख समस्याएँ हैं अनैतिक स्थिति, विघटन, पारिवारिक कलह, मानसिक अशांति, धार्मिक द्वेष, राजनीतिक झगड़े आदि । टी० एस० इलिएट तथा मैरिल ने लिखा है कि सामाजिक विघटन उस समय उत्पन्न होता है जब संतुलन स्थापित करने वाली शक्तियों में परिवर्तन होता है और सामाजिक संरचना इस प्रकार टूटने लगती है पहले से स्थापित नवीन परिस्थितियों पर लागू नहीं होते और सामाजिक नियन्त्रण के स्वीकृत रूपों का प्रभाव. पूर्वक कार्यान्वयन असम्भव हो जाता है। ___इस पृष्ठभूमि में जैनचिंतन के मुद्दे व्यक्ति को समष्टिपरक संस्थिति को सम्पुष्ट करते हैं और समाज को अपने आदर्शों के अनुकूल नयी स्थिति प्रदान करने के लिए प्रतिबद्ध है। हिन्दी नाटकों में उन जैन तत्वों को उकेरने का प्रयास किया गया है जिन्हें हम सचमुच आज समाज की मूलभित्ति के रूप में मान्यता प्रदान कर सकते है। हिन्दी नाटक जैन समाजदर्शन से अनुप्राणित होते हुए भी एक नयी जमीन तैयार करने में अपनी अहम भूमिका का निर्वाह करते हैं । जैनदर्शन से मण्डित ये नाटक आधुनिक होते हुए ही परम्परा से सम्पृक्त है। यही उनके चितन की विशेषता है । तीर्थंकरों तथा जैनाचार्यों के तत्वचिंतन को कथानक, पात्र तथा सम्वाद की सरस स्थिति प्रदान करते हए. ये नाटक स सामाजिक संचेतना की भूमि बनाते हैं। जैनचिंतन में जिन्हें पंचमहाव्रत माना गया है उन्हें आज जीवन मूल्य के रूप में स्वीकार किया जा सकता है। व्यक्तिगत मोक्ष की सामाजिक परिपार्श्व में आबद्ध करने में इन नाटकों की अहमियत है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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