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________________ ४१८ पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ । खण्ड जिनसेन कृत (८४० वि० या ७८३ ई०) संस्कृत हरिवंशपुराण, तथा स्वयंभूदेव कृत अपभ्रंश का 'रिटुणेमिचरिउ' प्रथम रचनाएँ है। आचार्य विमलसूरि द्वारा प्राकृत भाषा में भी महाभारत से सम्बन्धित कोई रचना की गई थी, ऐसा 'कूबलयमाला' में उल्लेख है। इन रचनाओं में तीर्थंकर नेमिनाथ, उनके चचेरे भाई वासुदेव कृष्ण, बलदेव, जरासन्ध तथा कौरव-पाण्डवों के वर्णन, पारम्परिकता से समता और विषमता रखते हुए उपलब्ध हैं। जैनमिथकों के आदि स्रोत भगवान ऋषभ रामायण और महाभारत के पश्चात् काल की दृष्टि से महापुराणों की बारी आती है जिनमें त्रिषष्टिशलाका पुरुषों अथवा चौबीस तीर्थंकरों आदि के चरित्र वर्णित हैं । संस्कृत भाषा में इस सम्बन्ध में सबसे महत्वपूर्ण रचना महापुराण है। इसका प्रथम भाग आदिपुराण जिनसेनाचार्य कृत है तथा उत्तरपुराण उनके शिष्य गुणभद्र की रचना है। आदिपुराण में प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव तथा उनके पुत्र प्रथम चक्रवर्ती भरत का एवं उत्तरपुराण में शेष शलाका पुरुषों के चरित्र वर्णित हैं। एक समय था जब भरत क्षेत्र में कल्पवृक्ष पूरित भोगभूमि रही। किन्तु समय में पलटा खाया, जीवन निर्वाह की सामग्री देने वाले कल्पवृक्ष स्वयं धीरे-धीरे नष्ट हो गए। उस समय जनता के समक्ष अनेक प्रकार की कठिन समस्याएं क्रम-क्रम से आने लगीं। उन विकट समस्याओं को सुलझाने के लिए निम्न चौदह युग प्रधान नेताओं, मनुओं या कुलकरों का अवतार हुआ : १. प्रतिश्रुति, २. सन्मति, ३. क्षेमंकर, ४. क्षेमंवर, ५. सोमंकर, ६. सीमंधर, ७. विमलवाहन, ८. चक्षुष्मान, ९. यशस्वान्, १०. अभिचन्द्र, ११. चन्द्राभ, १२. मरुद्देव, १३. प्रसेनजित् और १४. नाभिराय। ये मन जनसाधारण की अपेक्षा अधिक बुद्धिमान् थे । इस कारण इन्होंने मानव समाज की समस्याओं को अपने विशेष ज्ञानबल से सुलझाने का प्रयत्न किया। अन्तिम मनु नाभिराय की गुणवती पत्नी मरुदेवी थो। मरुदेवी के गर्भ में एक महान् तेजस्वी पुत्र आया। इसके गर्भ में स्थित होते ही नाभिराय के घर में हिरण्य अर्थात् स्वर्ण की दृष्टि हुई। इस कारण देवताओं ने 'हिरण्यगर्भ' कहकर स्तुति की। पुत्र के जन्म के समय उसके दाहिने पैर में बैल का चिह्व था, इस कारण उसका नाम ऋषभनाथ या वृषभनाथ रखा गया । ऋषभनाथ जन्म से ही महान् ज्ञानी, अत्यन्त सुन्दर, प्रकृष्ट बलवान्, अतिशय दयालु तथा प्रबल पराक्रमी थे। युवा होने पर उनका विवाह नन्दा तथा सुनन्दा नामक दो परम सुन्दरी कन्याओं से हुआ। नन्दा के गर्भ से भरत आदि सौ पुत्र तथा ब्राह्मी नामक एक पुत्री हुई। सुनन्दा के गर्भ से बाहुबली नामक एक महाबलशाली पुत्र एवं सुन्दरी नामक एक कन्या का जन्म हुआ। भगवान ऋषभनाथ ने अपने ज्ञानबल से लोगों को कृषि करके अन्न उत्पन्न करने की और अन्न से भोजन बनाने की विधि सिखलायी। उन्होंने इक्षु से रस निकाल कर उसे काम में लेने की विधि भी बताई। वहीं से इक्ष्वाकु वंश का प्रारम्भ माना गया। उन्होंने कपास पैदा कर उससे वस्त्र बनाने के उपाय बतलाए । धातुओं तथा मिट्टी से बर्तन बनाने की प्रक्रिया समझायी। इसके अतिरिक्त ऋषभदेव ने मनुष्यों को अस्त्र-शस्त्र चलाने की विद्या तथा शिल्पकला सिखलाई। उन्होंने व्यापार करने का ढंग तथा परस्पर सहयोग से रहकर जीवन निर्वाह करने के उपाय जनता को बतलाए । भगवान् ऋषम ने अपने बड़े पुत्र भरत को नाट्य-कला सिखलाई । सम्भवतः उसी से भरत नाट्यशास्त्र के आचार्य माने जाते हैं। उन्होंने बाहुबली को मल्लविया में निपुण किया एवं अन्य पुत्रों की राजनीति, बुद्धनीति आदि कलाओं की शिक्षा दी। ____एक दिन भगवान् आदिनाथ निश्चिन्त प्रसन्न मुद्रा में बैठे हुए थे। तब उनकी दोनों पुत्रियां आकर उनकी गोद में बैठ गई। ब्राह्मी बाएं घुटने पर बैठी तथा सुन्दरी दाहिने घुटने पर। दोनों पुत्रियों ने मीठी भाषा में कहा, "पिताजी, आपने सबको अनेक विद्याएँ सिखलाई, हमें भी कोई अक्षय विद्या दीजिए।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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