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४१६ पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ
[खण्ड जैन मिथक साहित्य
जैन साहित्य में मिथक अर्थात् पुराण साहित्य की बहुलता है । यह संस्कृत, प्राकृत एवं अपभ्रंश-तीनों भाषाओं में निम्न रूप में उपलब्ध है।
प्राकृत भाषा के पुराण ग्रन्थ-पउमचरिय, चउपनमहापुरिसचरिय, पासनाहचरिय, सुपासनाहचरिय, महावोरचरिय, कुमारपालचरिय, वसुदेवहिंडो, समरादिच्चकहा, कालकाचरियकहा, जम्बुचरित्रं, कुमारपालपडिबोध आदि ।
संस्कृत भाषा के पुराण ग्रन्थ-पद्मचरित, हरिवंशपुराण, पाण्डवपुराण, महापुराण, त्रिषष्ठिशलाकापुराणचरित, चन्द्रप्रभचरित, धर्मशर्माभ्युदय, पार्वाभ्युदय, वर्धमानचरित, यशस्तिलकचम्पू, जीवन्धरचम्पू आदि ।
अपभ्रंश भाषा के पुराण ग्रन्थ-पउमचरिउ, महापुराण, पासणाहचरिउ, जसहरचरिउ, भविसयत्तकहा, करकंडुचरिउ, पउमसिरिचरिउ, बड्ढमाणचरिउ आदि । इस प्रकार जैन धर्म में अपार जैन मिथक साहित्य उपलब्ध है। पुराण और महापुराण
जिनसेवाचार्य ने अपने महापुराण ( आदि पुराण ) में पुराण की व्याख्या 'पुरातन पुराणं स्यात्' की है। उन्होंने आगे यह भी बताया है कि वे अपने ग्रन्थ में श्रेसठ शलाका पुरुषों का पुराण कह रहे हैं। इससे यह प्रतीत होता है कि जिसमें एक शलाका पुरुष का वर्णन हो, वह पुराण तथा जिसमें अनेक शलाका पुरुषों का वर्णन हो वह महापुराण है। उनके ग्रन्थ में जिस धर्म का वर्णन है, उसके सात अंग हैं-द्रव्य, क्षेत्र, तोर्थ, काल, भाव, महाफल और प्रकृत । तात्पर्य यह है कि पुराण में षड्द्रव्य, सृष्टि, तीर्थस्थापना, पूर्व और भविष्यजन्म, नैतिक तथा धार्मिक उपदेश, पुण्यपाप के फल और वर्णनीय कथावस्तु अथवा सत्पुराण के चरित का वर्णन होता है ।
पुराण की उपर्युक्त परिभाषा के आधार पर कहा जा सकता है कि पुराण में महापुरुषों का चरित, ऋतुपरिवर्तन और प्रकृति की वस्तुओं के अन्दर होनेवाले परिवर्तन, प्राकृतिक शक्तियों और वस्तुओं का वर्णन, आश्चर्यजनक एवं असाधारण घटनाओं का वर्णन, विश्व तथा स्वर्ग-नरकादि का वर्णन, सृष्टि के आरम्भ और प्रलय का वर्णन, पुनर्जन्म, पुण्य-पाप, वंश, जाति, राष्ट्रों की उत्पत्ति, सामाजिक संस्थाओं और धार्मिक मान्यताओं का वर्णन तथा ऐतिहासिक घटनाओं का वर्णन होना चाहिए ।
पुराण और महाकाव्य
धीरे-धीरे जैनपुराणों में काव्यमय शैली का भी समावेश हो गया। यह तत्कालीन प्रभाव ही प्रतीत होता है। जिनसेनाचार्य के अनुसार, महाकाव्य वह है जो प्राचीन काल के इतिहास से सम्बन्ध रखने वाला हो, जिसमें तीर्थंकर, चक्रवर्ती इत्यादि महापुरुषों का चरित्र-चित्रण हो तथा जो धर्म-अर्थ-काम के फल को दिखाने वाला हो, आचार्य जिनसेन ने अपने महापुराण को महाकाव्य भी माना है। कहने का तात्पर्य यह है कि महापुराण का रूप पुराण से वृहत्काय होता है और जैन पुराणों में काव्यात्मक शैली का भी समावेश हो गया है। पुराणों का रचना को काल और भाषा
पुराण और महापुराण नामक रचनाओं का आधार क्या है? जिनसेनाचार्य के अनुसार, तीर्थंकरादि महापुरुषों के द्वारा उपदिष्ट चरितों को महापुराण कहते हैं। तात्पर्य यह है कि इन पुराणों की कथाएँ तीर्थंकरों के मुख से सुनी गई और ये ही परम्परा से चली आ रही है। उपलब्ध पुराण-साहित्य पर दृष्टिपात करें तो मालूम होगा कि ये रचनाएँ विक्रम की छठी शताब्दी से लेकर अठारहवीं शताब्दी तक पनपती रहीं।
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