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________________ प्राचीन प्रश्नव्याकरण : वर्तमान ऋषिभाषित और उत्तराध्ययन ४११ है । यह ग्रन्थ एक प्राचीन ताडपत्रीय प्रति के आधार पर प्रकाशित किया गया है। ताड़पत्रीय प्रति खरतरगच्छ के आचार्यशाखा के ज्ञानभण्डार, जैसलमेर से प्राप्त हुई थी और यह विक्रम सम्बत् १३३६ की लिखी हुई थी। ग्रन्थ मूलतः प्राकृत भाषा में है और उसमें ३७८ गाथाएं हैं। उसके साथ संस्कृत टीका भी है। यह प्रकाशित ग्रन्थ पार्श्वनाथ विद्याश्रम, वाराणसी के पुस्तकालय में है। ग्रन्थ का विषय निमित्तशास्त्र से सम्बन्धित है। इसी प्रकार, जिनरत्नकोश में भी शान्तिनाथ भण्डार खम्भात में उपलब्ध जयपाहड़ प्रश्नव्याकरण नामक ग्रन्थ की सूचना उपलब्ध होती है।" यद्यपि इसकी गाथा संख्या २२८ बताई गई है। एक अन्य प्रश्नव्याकरण नामक ग्रन्थ की सूचना हमें नेपाल के महाराजा की लायब्रेरी से प्राप्त होती है। श्री अगरचन्दजी नाहटा की सूचना के अनुसार इस ग्रन्थ की प्रतिलिपि तेरापन्थ धर्मसंघ के युवाचार्य मुनि श्री नाथमलजो ने प्राप्त कर ली है। इस लेख के प्रकाशन के पूर्व श्री जौहरीमलजी पारख, रावटी, जोधपुर के सौजन्य से इस ग्रन्थ की फोटो कापी पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान को प्राप्त हो गई है। इसे अभी पूरा पढ़ा तो नहीं जा सका है, किन्तु तुलनात्मक दृष्टि से देखने पर ज्ञात हुआ कि इसको मूलगाथाएँ तो सिन्धो जैन ग्रन्थमाला के अन्तर्गत प्रकाशित कृति के समान ही हैं, किन्तु टीका भिन्न है। इसकी एक अन्य फोटोकापी लालाभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्या मंदिर, अहमदाबाद से भी प्राप्त हुई है। एक अन्य प्रश्नव्याकरण की सूचना हमें पाटन ज्ञान भण्डार की सूची से प्राप्त होती है। यह ग्रन्थ भी चूड़ामणि नामक टीका के साथ है और टीका का ग्रन्थांक २३०० श्लोक परिमाण बताया गया है। यह प्रति भी काफी पुरानी हो सकती है।" इन सब आधारों से ऐसा लगता है कि प्रश्नव्याकरण का निमित्रशास्त्र से सम्बन्धित संस्करण भी पूरी तरह विलुप्त नहीं हुआ होगा अपितु उसे उससे अलग करके सुरक्षित कर लिया गया है। यदि कोई विद्वान् इन सब ग्रन्थों को लेकर उनकी विषयवस्तु को समवायांग, नन्दोसूत्र एवं धवला में प्रश्नव्याकरण की उल्लिखित विषयसामग्री के साथ मिलन करें, तो यह पता चल सकेगा कि प्रश्नव्याकरण नामक जो अन्य ग्रन्थ उपलब्ध है, वे प्रश्नव्याकरण के द्वितीय संस्करण का ही अंश है या अन्य है। यह भी सम्भव है कि समवायांग और नन्दी के रचनाकाल में प्रश्नव्याकरण नामक कई ग्रन्थ वाचना-भेद से प्रचलित हों और उनमें उन सभी विषयवस्तु का समाहित किया गया हो। इस मान्यता का एक आधार यह है कि ऋषिभाषित, समवायांग, नन्दी एवं अनुयोगद्वार में 'वागरणगंथा' एवं 'पण्हावागरणाई-ऐसे बहुवचन प्रयोग मिलते हैं । इससे ऐसा लगता है कि इस काल में वाचनाभेद से या अन्य रूप से अनेक प्रश्नव्याकरण रहे होंगे। ___ इन प्रश्नव्याकरणों की संस्कृत टीका सहित ताड़पत्रीय प्रतियाँ मिलना इस बात की अवश्य सूचक है कि ईसा को ४-५वीं शती में ये ग्रन्थ अस्तित्व में थे क्योंकि ९-१०वीं शताब्दी में जब इनकी टोकाएँ लिखी गई, तो उससे पूर्व भी ये ग्रन्थ अपने मूल रूप में रहे होंगे। सम्भवतः ईसा की लगभग २.३ री सदी में प्रश्नव्याकरण में निमित्तशास्त्र सम्बन्धी सामग्री जोडी गई हो और फिर उसमें से ऋषिभाषित का हिस्सा अलग किया गया और उसे विशिष्ट रूप से एक निमित्तशास्त्र का ग्रन्थ बना दिया गया। पुनः लगभग सातवीं सदी में यह निमित्त शास्त्र वाला हिस्सा अलग किया गया और उसके स्थान पर पांच आश्रव तथा पांच संवरद्वार वाला वर्तमान संस्करण रखा गया। प्रश्नव्याकरण के पूर्व के दो संस्करण भी, चाहे उससे पृथक कर दिये गये हों, किन्तु वे ऋषिभाषित, उत्तराध्ययन और प्रश्नव्याकरण नाम अन्य निमित्तशास्त्र के ग्रन्थों के रूप में अपना अस्तित्व रख रहे हैं । आशा है, इस सम्बन्ध में विद्वद्वर्ग आगे और मन्थन करके किसी निष्कर्ष पर पहुँचेगा। प्रश्नव्याकरण और ऋषिभाषित को विषयवस्तु को समरूपता का प्रमाण ऋषिभाषित और प्राचीन प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तुओं की एकरूपता का सबसे महत्त्वपूर्ण प्रमाण हमें ऋषिभाषित के पावं नामक इकतीसवें अध्ययन में मिल जाता है। इसमें पाश्व की दार्शनिक अवधारणाओं की चर्चा है। इस चर्चा के प्रसंग में ग्रन्थाकार ने स्पष्ट रूप से यह उल्लेख किया है कि व्याकरणप्रभृति ग्रन्थों में समाहित इस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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