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________________ प्राचीन प्रश्नव्याकरण : वर्तमान ऋषिभाषित और उत्तराध्ययन ४०७ होगा कि यह सामग्री उसमें बाद में जुड़ी है, प्रारम्भ में उसका अंग नहीं थी क्योंकि प्राचीनकाल में निमित्त शास्त्र का अध्ययन जैनभिक्षु के लिए वजित था और इसे पापश्रुत माना जाता था। स्थानांग और समवयांग-दोनों में प्रश्नव्याकरण सम्बन्धी जो विवरण हैं, वे भी एक काल के नहीं हैं। समवायांग का विवरण परवर्ती है, क्योंकि उस विवरण में मूल तथ्य सुरक्षित रहते हुए भी निमित्तशास्त्र सम्बन्धी विवरण काफी विस्तृत हो गया है। स्थानांग में प्रश्नव्याकरण के दस अध्ययन बताये गये हैं जबकि समवायांग उसमें ४५ उद्देशक होने की सूचना देता है । 'उवमा' और 'संखा' नामक स्थानांग में वणित प्रारम्भिक दो अध्ययनों का यहाँ निर्देश ही नहीं है। हो सकता है कि 'उवमा' की सामग्री ज्ञाताधर्मकथा में और 'संखा' की सामग्री-यदि उसका सम्बन्ध संख्या से था, तो स्थाांग या समवायांग में डाल दी गई हो। 'कोमलपसिणाई' का भी उल्लेख नहीं है। इन तीनों के स्थान पर 'असि' 'मणि' और 'आदित्य'-ये तीन नाम नये जुड़ गये हैं, पुनः इनका उल्लेख भी अध्ययनों के रूप में नहीं है । समवायांग का विवरण स्पष्टरूप से यह बताता है कि प्रश्नव्याकरण का वर्ण्य-विषय चमत्कारपूर्ण विविध विधाओं से परिपूर्ण है। यहाँ इसिभासियाई, आयरियभासियाई और महावीरभासियाइं-इन तोन अध्ययनों का विलोप कर यह निमित्तशास्त्र सम्बन्धी विवरण इनके द्वारा कथित है, यह कह दिया गया है। वस्तुतः समवायांग का विवरण हमें प्रश्नव्याकरण के किसी दूसरे परिवर्षित संस्करण की सूचना देता है जिसमें नेमिशास्त्र से सम्बन्धित विवरण जोड़कर प्रत्येकबुद्धभाषित (ऋषिभाषित) आचार्यभाषित और वोरभासित (महावीरभाषित) भाग अलग कर दिए गये थे और इस प्रकार इसे शुद्धरूप से एक निमित्तशास्त्र का ग्रन्थ Tथा। उसे प्रामाणिकता देने के लिए यहाँ तक कह दिया गया कि यह प्रत्येकबद्ध आचार्य और महावीरभाषित है। तत्वार्थवार्तिक में प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु का जो विवरण उपलब्ध है, वह इतना अवश्य सूचित करता है कि ग्रन्थकार के सामने प्रश्नव्याकरण की कोई प्रति नहीं थी। उसने प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु के सम्बन्ध में जो विवरण दिया है, वह कल्पनाधित ही है। यद्यपि धवला में प्रश्नव्याकरण के सम्बन्ध में जो निमित्तशास्त्र से सम्बन्धित कुछ विवरण है, वह निश्चय ही यह बताता है कि ग्रन्थकार ने उसे अनुश्रुति के रूप में श्वेताम्बर या यापनीय परम्परा से प्राप्त किया होगा। धवला में वर्णित विषयवस्तुवाला कोई प्रश्नव्याकरण अस्तित्व से भी रहा होगा, यह कहना कठिन है । ___ यद्यपि समवायांग का प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु सम्बन्धी विवरण स्थानांग की अपेक्षा परवर्ती काल का है, फिर भी इसमें कुछ तथ्य ऐसे अवश्य हैं जो हमारी इस धारणा को पुष्ट करते हैं कि प्रश्नव्याकरण की मूलभूत विषयवस्तु ऋषिभाषित, आचार्यभाषित और महावीरभाषित ही थी और जिसका अधिकांश भाग आज भी ऋषिभाषित आदि के रूप में सुरक्षित है । क्योंकि समवायांग में भी प्रश्नव्याकरण को विषयवस्तु को प्रत्येक बुद्धभाषित, आचार्यभाषित कहा गया है। स्थानांग में जहाँ ऋषिभाषित शब्द हैं, वहाँ समवायांग में प्रत्येक बुद्धभाषित शब्द है। यह स्पष्ट है कि ऋषिभाषित के प्रत्येक ऋषि को आगे चलकर जैनाचार्यों ने प्रत्येक बुद्ध के रूप में स्वीकार किया है । " हमारे कथन की पुष्टि का दूसरा आधार यह है कि समवायांग में प्रश्नव्याकरण के एक श्रुतस्कन्ध और ४५ अध्याय माने गये हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि समवायांग के प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु सम्बन्धी इस विवरण के लिखे जाने तक भी यह अवधारणा अचेतन रूप में अवश्य थी कि प्रश्नव्याकरण को विषयवस्तु प्रत्येक बुद्धों, धर्माचार्यों और महावीर के उपदेशों से निर्मित थो, यद्यपि इस काल तक ऋषिभाषित को उससे अलग कर दिया होगा और उसके ४५ अध्ययनों के स्थान पर नैमित्तशास्त्रसम्बन्धी विद्यायें समाविष्ट कर दी गई होंगी। यद्यपि निमित्तशास्त्र के विषय जोड़ने का हो ऐसा कुछ प्रयत्न सीमितरूप में स्थानांग प्रश्नव्याकरण सम्बन्धी विवरण लिखे जाने के पूर्व भी हुआ होगा। मेरी धारणा यह है कि प्रथम प्रश्नव्याकरण में निमित्तशास्त्र का विषय जुड़ा और फिर ऋषिभाषित वाला अंग अलग हुआ तथा बीच का कुछ काल ऐसा रहा जब वही विषयवस्तु दोनों में समानान्तर बनी रही। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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