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________________ प्राचीन प्रश्नव्याकरण : वर्तमान ऋषिभाषित और उत्तराध्ययन ४०५ २. संख्या, ३. ऋषिभाषित, ४. आचार्यभाषित, ५. महावीरभाषित, ६. क्षीमकप्रश्न, ७. कोमलप्रश्न, आदर्शप्रश्न आद्रकप्रश्न. ९. अंगुष्ठप्रश्न, १०. बाहुप्रश्न ।' इससे फलित होता है कि सर्वप्रथम यह दस अध्यायों का ग्रन्थ था। दस अध्यायों के ग्रन्थ दसा (दशा) कहे जाते थे। (ब) समवायांग-स्थानांग के पश्चात् प्रश्नव्याकरण सूत्र की विषयवस्तु का अधिक विस्तृत विवेचन करनेवाला आगम समवायांग है। समवायांग में उसकी विषयवस्तु का निर्देश करते हुए कहा गया है कि 'प्रश्नव्याकरणसूत्र में १०८ प्रश्नों, १०८ अप्रश्नों और १०८ प्रश्नप्रश्नों का, विद्याओं के अतिशयों (चमत्कारों) का तथा नागों-सुपर्णों के साथ दिव्य संवादों का विवेचन है। यह प्रश्नव्याकरणदशा स्वसमय-परमसमय के प्रज्ञापक एवं विविध अर्थों वाली भाषा के प्रवक्ता प्रत्येक बुद्धों के द्वारा भाषित, अतिशय गुणों एवं उपशमभाव के वारक तथा ज्ञान के आकर आचार्यों के द्वारा तार से भाषित और जगत् के हित के लिए वीर महर्षि के द्वारा विशेष विस्तार से भाषित है। यह आदर्श, अंगुष्ठ, बाहु, असि, मणि, क्षौम (वस्त) एवं आदित्य (के आश्रय से) भाषित है। इसमें महाप्रश्न विद्या, मनप्रश्नविद्या, देवप्रयोग आदि का उल्लेख है। इसमें सब प्राणियों के प्रधान गुणों के प्रकाशक, दुर्गुणों को अल्प करनेवाले, मनुष्यों को मति को विस्मित करने वाले, अतिशयमय, कालज्ञ एवं शमदम से युक्त उत्तम तीर्थंकरों के प्रवचन में स्थित करनेवाले, दुराभिगम, दुरावगाह, सभी सर्वज्ञों के द्वारा सम्मत सभी अज्ञजनों को बोध करानेवाले प्रत्यक्ष प्रतीतिकारक, विविध गुणों से और महान् अर्थों से युक्त जिनवरप्रणीत प्रश्न (वचन) कहे गये हैं। प्रश्नव्याकरण अंक की सीमित वाचनायें हैं, संख्यात अनुयोगद्वार है, संख्यात प्रति पक्तियाँ हैं, संख्यात वेढ है, संख्यात श्लोक हैं, संख्यात नियुक्तियां हैं और संख्यात संग्रहणियाँ हैं । प्रश्नव्याकरण अंगरूप से दसवां अंग है, इसमें एक श्रुतस्कन्ध है, पैंतालीस उद्देशन काल हैं, पैतालीस समुद्देशन काल हैं। पद गणना की अपेक्षा संख्यात लाखपद कहे गये हैं। इसमें संख्यात अक्षर हैं, अनन्तगम है, अनन्तपर्याय हैं, परीत त्रस हैं, अनन्त स्थावर हैं। इसमें शाश्वतकृत, निबद्ध, निकाचित जिन-प्रज्ञप्त भाव कहे जाते हैं, प्रज्ञापित किये जाते हैं, प्ररूपित किये जाते हैं, निदर्शित किये जाते है और उपशित किये जाते है। इस अंग के द्वारा आत्मा ज्ञाता होता है, विज्ञाता होता है। इस प्रकार चरण और करण की प्ररूपणा के द्वारा वस्तु-स्वरूप का कथन, प्रज्ञापन, निदर्शन और अपदर्शन किया जाता है । (स) नन्दीसूत्र-नन्दीसूत्र में प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु का जो उल्लेख है; वह समवायांग के विवहण का मात्र संक्षिप्त रूप है। उसके भाव और भाषा दोनों ही समान हैं। मात्र विशेषता यह है कि इसमें प्रश्नव्याकरण के ४५ अध्ययन बताये गये हैं जबकि समवायांग में केवल ४५ समुद्देशनकालों का उल्लेख है, ४५ अध्ययन का उल्लेख समवायांग में नहीं है । (द) तत्त्वार्थवातिक-तत्त्वार्थवार्तिक में प्रश्नव्याकरण की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि आक्षेप और विक्षेप के द्वारा हेतु और नय के आश्रय से प्रश्नों के व्याकरण को प्रश्नव्याकरण कहते है। इसमें लौकिक और वैदिक अर्थों का निर्णय किया जाता है। (इ) धवला-धवला में प्रश्नव्याकरण की जो विषयवस्तु बताई गई है, वह तत्वार्थ में प्रतिपादित विषयवस्तु से किंचित भिन्नता रखती है। उसमें कहा गया है कि प्रश्नव्याकरण में आक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेदनी और निवेदनी इन चार प्रकार की कथाओं का वर्णन है। उसमें यह भी स्पष्ट किया गया है कि आक्षेपणी कथा परसमयों (अन्य मतों) का निराकरण कर छह द्रव्यों और नव तत्त्वों का प्रतिपादन करती है। विक्षेपणी कथा में परसमय के द्वारा स्वसमय पर लगाये गये आलेपों का निराकरण कर स्वसमय को स्थापना करती है। संवेदनो कथा पुण्यफल की कथा है। इसमें तीर्थकर, गणधर, ऋषि, चक्रवर्ती आदि की ऋद्धि का विवरण है। निर्वेदनी कथा पाप फल की कथा है। इसमें ५२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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