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________________ सिद्धक्षेत्र कुण्डलगिरि ३७१ (छ) इनके सिवाय, बर्रट आदि स्थानों से लाई गई मूर्तियां अन्य मन्दिरों में स्थापित की गई हैं। उनमें खड्गासन और पद्मासन-दोनों प्रकार की प्रतिमायें हैं। उदाहरणार्थ, ८, ९, ११, १३, १४, १६, १९, २०, २९, ४० और ५० संख्यांक जिन मन्दिरों में देशी पाषाण निर्मित प्रतिमायें विराजमान हैं। इस प्रकार ३, ५, और ६ संख्यक मन्दिरों में देशी पाषाण निर्मित चरण चिह्न हैं।। (ज) इन सब प्रमाणों पर दृष्टिपात करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि इस क्षेत्र का निर्माण छठवीं सदी से पहले हो हो गया था। यह ठोक है कि यहाँ के मन्दिरों में बरंट से देशी पाषाण निर्मित बहुत-सी मूर्तियां लाकर प्रतिठित की गयी है, परन्तु इससे क्षेत्र की प्राचीनता में कोई बाधा नहीं पड़ती। इनमें बहुत सी मूर्तियां अङ्ग-भङ्ग भी हैं । साथ ही, बड़े मन्दिर की परिक्रमा के पीछे खुले भाग में चबूतरे पर दीवाल से लग कर बहुत-सी मूर्तियाँ यहाँ वहाँ से लाकर रखी हुई है । इससे भी उक्त तथ्य की पुष्टि होती है । कोठिया जी के मत पर विचार डॉ० दरबारीलाल कोठिया, न्यायाचार्य ने 'अनेकान्त' वर्ष ८, किरण ३, मार्च १९४६ में 'कौन-सा कुण्डलगिरि सिद्धक्षेत्र है" शीर्षक से एक लेख लिखा था। उसे पढ़ कर पत्र द्वारा मैंने उन्हें ऐसे लेख न लिखने का आग्रह किया था। उस समय जहां तक मुझे याद है, उन्होंने मेरी यह बात स्वीकार भी कर ली थी। किन्तु पुनः कुछ परिवर्तन के साथ उसी लेख को जब मैंने उनके अभिनन्दन ग्रन्थ में देखा, तो मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। इससे ही मुझे इस विषय पर सांगोपांग विचार करने की प्रेरणा मिली । ___ इस लेख में उन्होंने बताया है कि सन् १९४६ के पूर्व विद्वत्परिषद के कटनी अधिवेशन में 'क्या दमोह जिले का कुण्डलगिरि सिद्धक्षेत्र है' इसका निर्णय करने के लिए तीन विद्वानों की एक उपसमिति बनाई गई थीं। उसी आधार पर अपने अनुसन्धान, विचार और उसके निष्कर्ष को विद्वानों के सामने रखने के लिए डॉ० साहब ने उस समय वह लेख लिखा था । उनके अभिनन्दन ग्रन्थ में प्रकाशित उनका एतद्विषयक दूसरा लेख भी उन्होंने इस विषय के 'अनुसन्धेय' भाव से लिखा है । त्रिलोक प्रज्ञप्ति के अनुसार अन्तिम अननुबद्ध केवली श्रीधर स्वामी कुण्डलगिरि से मोक्ष गये हैं। आचार्य पादपूज्य (पूज्यपाद) ने भी स्वलिखित निर्वाण-भक्ति में कुण्डलगिरि को निर्वाण क्षेत्र स्वीकार किया है। परन्तु यह कुण्डलगिरि किस केवली को निर्वाणभूमि है, यह कुछ भी नहीं लिखा है। वही स्थिति "क्रियाकलाप' में संगृहीत प्राकृत निर्वाण भक्ति की भी है, इस प्रकार इन तीन उल्लेखों से यह तो स्पष्ट हो जाता है कि कुण्डलगिरि सिद्धक्षेत्र है । अब विचार यह करना है कि वह कुण्डलगिरि सिद्धक्षेत्र फिस प्रदेश में अवस्थित है। आचार्य पूज्यपाद ने अपने स्वलिखित संस्कृत निर्वाण भक्ति के ९ संख्यक श्लोक में द्रोणीगिरि के अनन्तर कुण्डलगिरि का उल्लेख करके बाद में मुक्तागिरि का उल्लेख किया है। साथ ही, इसमें राजगृही के पाँच पहाड़ों में से वैभारगिरि, ऋषिगिरि, विपुलगिरि और वलाहकगिरि का भी उल्लेख करते हुए इन निर्वाण भूमि स्वीकार किया है। इस उल्लेख से यह स्पष्ट हो जाता है कि आचार्य पूज्यपाद की दृष्टि में राजगृही के पाँच पहाड़ों में से चार पहाड़ ही सिद्धक्षेत्र हैं, पाण्डुगिरि सिद्धक्षेत्र नहीं है । उन्होंने अपने दूसरे लेख में जो यह लिखा है कि 'पूज्यपाद के उल्लेख से ज्ञात होता है कि उनके समय में पाण्डुगिरि, जो वृत्त (गोल) है, कुण्डलगिरि भी कहलाता था।' सो इस सम्बन्ध में हमारा इतना कहना पर्याप्त है कि इसकी पुष्टि में उन्हें कोई प्रमाण देना चाहिये था। सभी आचार्यों ने पाण्डुगिरि को ही लिखा है। उन्होंने भी वही किया है। इससे यह कहाँ सिद्ध होता है कि उनके समय पाण्डुगिरि कुण्डलगिरि भी कहलाता था। प्रत्युत् उससे यही सिद्ध होता है कि उनकी दृष्टि में ये दो स्वतन्त्र पहाड़ थे। चार पहाड़ों के सिद्धक्षेत्र होने का उल्लेख आ० पूज्यपाद रचित संस्कृतनिर्वाणभक्ति में भी है। यह उल्लेख न तो त्रिलोक प्रज्ञप्ति में ही दृष्टिगोचर होता है और न प्राकृत निर्वाण भक्ति में ही। किन्तु कोठिया जी का विचार है कि जब आचार्य पूज्यपाद ने राजगृह के पांच पहाड़ों में से चार को सिद्धक्षेत्र मानी है, तो पाण्डुगिरि भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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