SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 52
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्राचीन भारत की वैदिक पंडित परम्परा डॉ. नत्थूलाल गुप्त शिक्षा अधिकारी, केन्द्रीय विद्यालय संगठन, भोपाल भारत जिन विविध सांस्कृतिक उपादानों के कारण विश्व में गुरुपद पर अधिष्ठित रहा, उनमें भारत की स्वर्णिम आचार्य-परम्परा का अपना विशिष्ट स्थान है। आज के कम्प्यूटर-युग में शिक्षा के क्षेत्र में, चाहे जितने बेमिसाल वैज्ञानिक उपकरणों का प्रचलन किया गया हो, किन्तु गुरु की अपरिहार्यता सदियों से प्रतिष्ठित रही है। शास्त्रों का कथन है कि आचार्य के उपदेश के बल पर ही शिष्य के हृदय में ज्ञान अंकुरित एवं पल्लवित होता है। अतः ज्ञान के क्षेत्र में, विशेषतः परा एवं अपरा विद्या के क्षेत्र में आचार्य की अपरिहार्यता चिरकाल से रही है। आचार्य के इस गुरुत्व को ध्यान में रखकर ही भारतीय परम्परा उसे, सम्यक् आदर और प्रतिष्ठा प्रदान करती रही है। आचार्य की प्रतिष्ठा का प्रमुख कारण था-उसका गरिमामय चरित्र । वे सदाचरण को न केवल विद्यार्थियों में स्थापित करते थे. अपितु स्वयं भी अपनी विद्या के अनुकूल आचरण करते थे । वर्तमान आचार्य पहली बात में सचेष्ट है, किन्तु दूसरी के प्रति उदासीन । इसीलिए उसके उपदेश कारगर नहीं हो पा रहे हैं। वे यमनियमशील होकर सतत शास्त्राभ्यास के द्वारा विविध शास्त्रों का रहस्योद्घाटन करते थे। वायुपुराण के निम्न स्वयमाचरति यस्माद् आचारं स्थापयत्यपि । आचिनोति च शास्त्रार्थान् यमैः संनियमैर्युतः ॥ कथन से स्पष्ट है कि आचार्यत्व प्राप्ति के लिए सदाचरण के साथ-साथ शास्त्रों का गहन आलोडन भी अनिवार्य था। ऐसा करने से ही उनमें शास्त्रोपपत्ति की क्षमता आती थी और वे आचार्यत्व से विभूषित होते थे। शिष्टता आचार्य का एक अनिवार्य लक्षण था। बिना शिष्टता के कोई आचार्य नहीं माना जाता था। 'विद्या विनयेन शोभते' यह उक्ति इसी तथ्य का फलितार्थ हैं। वास्तविकता यह थी कि शिष्टता के बिना विद्या-प्राप्ति असम्भव मानी जाती थी। विनय के बिना श्रद्धा नहीं और बिना श्रद्धा के ज्ञान लाभ नहीं। इसीलिये तो गीता की उक्ति है-"श्रद्धावांल्लभते ज्ञानम् ।" शिष्टता का घनिष्ट सम्बन्ध अध्येता अथवा अध्यापक के आचरण से माना जाता था। दम्भ, दर्प, क्रोध, मोह, अहंकार, मात्सर्य आदि दुर्गुणों से रहित व्यक्ति को ही शिष्ट कहा गया है। शुक्रनीति के अनुसार मीमांसा, न्याय, वेदान्त, व्याकरण में तत्पर, तर्क का ज्ञाता, बोध कराने में समर्थ और तत्त्व का ज्ञाता शास्त्रवित होता है किन्तु जो व्यक्ति वेद का ज्ञाता और श्रुति-स्मृति, पुराणों के पठन-पाठन में समर्थ हो, उसे श्रुतज्ञ कहा गया है। महाकाव्य-युग में हमें शास्त्रवित् और श्रतज्ञ के बीच कोई व्यावतंक रेखा नहीं दिखाई पड़ती। एक ही व्यक्ति श्रुतज्ञ एवं शास्त्रज्ञ-दोनों होते थे । वास्तव में ऐसे मनीषी आचार्यत्व के अधिकारी होते थे। ऐसे आचार्य की सेवा करके वेद का मर्म समझकर साधक इष्ट-प्राप्ति में सफल होता था। मनु ने इस ब्राह्मण को आचार्य कहा है जो शिष्य का यज्ञोपवीत संस्कार करके उसे कल्प (यज्ञविद्या) तथा रहस्यों (उपनिषदों) के सहित वेदशाखा पढ़ावे । जो जोविकार्थ वेद के एकदेश (मंत्र तथा ब्राह्मण भाग) को तथा वेदाङ्गों (शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, ज्योतिष और छन्दशास्त्र) को पढ़ावे, उसे 'उपाध्याय' कहा है । वहाँ संस्कार कराने वाले Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy