SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 514
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५] पौरपाट (परवार) अन्वय - १ ३६५ तिने का व्यवहार पहले कभी नहीं रहा । इससे इस जाति को जो हानि हुई है, उसको कल्पना करने मात्र से रोंगटे खड़े हो जाते । प्रारम्भ में मुझे यह अनुमान भी न था कि इस अन्वय में अठसखा के अतिरिक्त अन्य और भी भेद होंगे । परन्तु अब उपरोक्त भेदों को ध्यान में देने से यह अवश्य ज्ञात होता है कि मूल पौरपाट अन्वय की अनेक शाखायें और उपशाखायें वटवृक्ष के समान फैली हुई है । अपनी जन्मभूमि गुजरात और मेवाड़ से निकल कर पहले ये आम्नाय की रक्षा हेतु मालवा और चन्देरी ( म०प्र०) आये और आज ऐसी स्थिति है कि भारत का ऐसा कोई प्रदेश नहीं जहाँ इस अन्वय में श्रावक कुल नहीं पाये जाते हों। ये आजीविका आदि कारणों से सर्वत्र बसते जा रहे हैं और अब तो विदेशों में भी इस अन्वय के श्रावक कुल पाये जाते हैं और अनेक वहीं के वासी हो गये हैं । वे कहीं भी बसें, अपने आम्नाय को न भूलें, यहो हम चाहते हैं । ६. नाम परिवर्तन एक नगर में इसमें सन्देह नहीं कि इस समय यह बहुत कम लोग जानते हैं कि परवारों का पुराना अन्वयनाम 'पोरपाट या पौरपट्ट' था । इस नाम में ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक आधार छिपे हुए हैं। ऐसा लगता है कि हम अपने पुराने इतिहास को भूल गये हैं और अब हम कहीं के नहीं रहे । मेरी सूचना के अनुसार, संचित द्रव्यों से, गंधमाल्यों से जिनबिंब की पूजा होने लगी है, एक अन्य नगर के बड़े मन्दिर की मुख्य वेदी के बगल में एक देवी की स्थापना कर दी गयी है और अनेक श्रावक उनकी पूजा भी करते हैं । ऐसा क्यों हो रहा है ? जिस मूल संघ की रक्षा के लिए हमने गुजरात और मेवाड़ छोड़ा, उस परिवेश को हमने भुला दिया है । मुझे तो लगता है कि ऐसी स्थिति का मूल कारण अपने पुराने सांस्कृतिक नाम को भुला देना ही है । हमारे समाज का पुराना नाम 'पौरपार पोरपट्ट' था । उसमें परिवर्तन होकर 'परवार' नाम प्रचलित हो गया है, यह हम भूल गये हैं । मूर्तिलेखों में हम अनेक नामों से अंकित किये गये हैं । (अ) सोनागिर पहाड़ से उतरते समय अन्तिम द्वार के पास एक कोठे में एक भग्न जिनबिंब है जिसके पादपीठ पर निम्न लेख है : ( संवत् ११०१ वका गोत्रे परवार जातिम ) । इससे मालूम होता है कि 'परवार' नाम बारहवीं सदी में चालू हो गया था । इस लेख में ब का गोत्र कहा गया है । बका मूल का गोत गोहिल्ल है । (आ) विदिशा ( भेलसा, भट्टलपुर ) के बड़े मन्दिर से प्राप्त एक जिनबिम्ब के पाठपीठ पर निम्न लेख अंकित है : 'संवत् १५३४ वर्षे चैत्रमासे त्रयोदश्यां गुरुवासरे भट्टारक श्री महेन्द्रकीर्ति भइलपुरे श्री राजारामराज्ये महाजन परवाल श्री जिनचन्द्र । (इ) एक वर्ष आगरा में शिक्षण शिविर लगा था । उसमें अनेक विद्वानों के साथ मैं भी गया था । उस समय जयपुर से पुराने शास्त्रों की प्रदर्शनी लगाई गई थी । उसमें एक हस्तलिखित 'पुण्यास्रव' शास्त्र भी था। उसके अन्त में निम्न प्रशस्ति अंकित थी : संवत् १४७३ वर्षे कार्तिक सुदी ५ गुरुदिने श्री मूलसंघे सरस्वती गच्छे नन्दिसंघे कुन्दकुन्दाचार्यान्वये भट्टारक श्री पद्मनन्दिदेवा स्तच्छिष्य मुनि श्री देवेन्द्रकीर्ति देवाः । तेन निजज्ञानावरणी कर्मक्षयार्थं लिखितं शुभं । श्री मूलसंघे भट्टारक श्री भुवनकीति तत्पट्टे श्री भट्टारक ज्ञानभूषण पठनार्थं, नरहड़ी वास्तव्य परवाडातीय सा० काकल, भा० पुण्य श्री, सुत सा० नेमिदास ठाकुर एतैः इदं पुस्तकं दत्तं । यह एक ऐतिहासिक जिनबिम्ब लेख है। इसमें गांधार और सूरत पट्ट के प्रथम भट्टारक देवेन्द्र कीर्ति का नाम आया है । दूसरे, इसमें ईडर पट्ट के भी दो भट्टारकों का उल्लेख किया गया है। इसलिए यह निश्चित है कि नरहडी नगर गुजरात में होना चाहिये क्योंकि इस लेख का सम्बन्ध गुजरात प्रदेश से ही है । इस लेख से दो बातें ज्ञात होती हैं : ૪૬ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy