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________________ पोरवाट (परवार) अन्वय-१ ३६३ पौरपाट अन्वय सदा से अपने संगठन के मूल काल से 'मूलसंघ कुंदकुंद आम्नाय को मानने वाला रहा है। इस कथन में कोई अत्युक्ति नहीं है कि इस अन्वय ने ही इस आम्नाय को जीवित रखा है। इसीलिये सात-आठ सौ वर्ष पूर्व के चन्द्रकीति नामक मनि या भट्टारक ने मलसंघ का उपहास किया है। ये १२-१३वीं सदी में हए हैं और सम्भवतः काष्ठासंघी मूल गया पाताल, मूल न मने न दीसे । मूलहि सद् ब्रत भंग, किम उत्तम होसे ।। मूल पिठां परवार, तेने सब काढी । श्रावक यतिवर धर्म, तेह किम आवी आढो ।। सकल शास्त्र लिखतां, यह संघ दीसे नहीं। चन्द्रकीर्ति एवं बदति, मोर पौछ काढे नहीं। थे। उसकी समझ से उन्हें मूलसंघ कहीं दिखाई नहीं दिया, वह पाताल में चला गया है। यह उत्तम कैसे हो सकता है जबकि इसमें भी व्रत-क्रिया कहीं भी दिखाई नहीं देती। मूलसंघ की पीठ (आश्रयदाता) परवार अन्वय ही है, उसके द्वारा ही मूलसंघ की यह सब खुराफात चालू की गई है। यह श्रावकधर्म और यतिधर्म के विरोध में खड़ा कैसे हो सकता है। वस्तुतः यह एक ऐसा उल्लेख है जिससे स्पष्ट है कि परवार अन्वय के लिये जो 'पौरपाट, पौरपट्ट' कहा गया है, वह सार्थक तो है ही, साथ ही ऐतिहासिक भी है । इस नाम से हमारी मूलसंघ की अनुयायिता की विशेषता का भान होता है जो लगभग दो हजार वर्ष पूर्व से चली आ रही है। ५. परवारों के भेद-प्रभेद कविवर बखतराम कृत 'बुद्धि विलास' में परवारों (पुरवारों) के सात भेद बताये है-१. अठसरवा, २ चौसखा. ३. सेडसरहा (खैसखा), ४. दो सखा. ५. सोरठिया. ६. गांगड और ७. पद्मावती। प्रारबाट दतिटाम श्री नाहटा ने कुछ काट-छाँट के बाद वैश्यों की चौरासी जातियों का नाम निर्देश करते हए एक सची दी है जिसमें परवार अन्वय के गांगड़ को छोड़कर बाकी उपरोक्त छह नाम मिले। उस सूची में एक भेद का नाम कुंडलपुरी भी है। यदि इसे 'गांगड़' के स्थान पर परवार अन्वय में गिन लिया जावे, यहाँ भी सात भेद हो जाते हैं। पर के डा० संगवे ने 'जैन सम्प्रदाय-एक सामाजिक सर्वेक्षण' नामक पुस्तक में पी०डी० जैन, प्रो० एच० एच० विल्सन तथा अन्य कुल मिलाकर परवार के भेदों को चार सूचियाँ प्रस्तुत की हैं । पी० डी० जैन के अनुसार, परवार अन्वय के पाँच भेद हैं-(१) परवार (२) पद्मावती पुरवाल (३) सोरठिया (४) दसहा और (५) माली परवार । प्रो० विल्सन की सूची में परवार, सोरठिया और गंगाडं नामक तीन नाम ही हैं। इसमें एक जाति का नाम 'बहरिया' दिया है। परवार अन्वय के १४४ या १४५ मूलों में एक मूल का नाम बहुरिया है जो सम्भवतः बहरिया अन्वय के अर्थ में ही आया है, इससे संकेत मिलता है कि बहुतेरे मूल जाति के अर्थ में बदलकर स्वतन्त्र अन्वय (जाति) बन गये हों, तो कोई आश्चर्य नहीं। संगवे द्वारा प्रस्तुत गुजरात की सूची में परवार, पुरवार या पोरवाल-किसी भी अन्वय का नाम नहीं है। उसमें एक अन्वय का नाम तिपोरा अवश्य है। संभवतः इससे पौरवाढ़, पौरपट्ट और पुरवारों का ग्रहण किया गया है। उनकी दक्षिण प्रदेश की सूची में परवार अन्वय के अर्थ में 'परवाल' नाम आया है । उसमें अठसखा के स्थान पर 'अस्टवार' तथा सोरठिया के स्थान पर सारखिया नाम पाये जाते हैं। इसमें एक अन्वय का नाम पवारछिया भी आया है। इन सूचियों पर दृष्टिपात करने से ऐसा लगता है कि संकलन करते समय जिन्हें जो नाम उपलब्ध हुए, उन्हें तत्तत् सूची में सम्मिलित कर लिया गया । इन भेदों का विवरण और उनकी वर्तमान स्थिति विचारणीय है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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