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________________ ३५४ पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ [खण्ड इस अन्वय के पुरुषों के मूलसंघो होने के कारण श्वेतपट-संघ में न जाकर मूलसंघ में ही रहना स्वीकार किया होगा एवं यह प्रारम्भ से ही मूलसंघ को स्वीकार करनेवाला बना रहा। फिर भी, उत्तरकाल में इसने कुन्दकुन्दाम्नाय को ही क्यों स्वीकार किया, इसका अनूठा इतिहास है। यह भी एक स्वतन्त्र लेख का विषय है। फिर भी, यहाँ इतना जानना पर्याप्त है कि कुन्दकुन्द दक्षिण प्रदेश के सपूत होकर भी उन्होंने उसी परम्परा का पुरस्कार किया जो भ. महावीर के से निरपवाद रूप से चली आ रही थी और जिसको केवल पौरपाट ने ही स्वीकार किया। वह अन्य परम्परा के व्यामोह में नहीं पड़ा। इस परम्परा के नामकरण में “पौर" शब्द के साथ 'वाट', 'वाड' शब्द न लगाकर 'पाट' या 'पट्ट' शब्द लगा हुआ है, उसका भी यही कारण प्रतीत होता है । इसका ऊहापोह आगे किया जायगा । पूर्वोक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि इस काल में जितने भी अन्वय उपलब्ध होते हैं, वे केवल नवदीक्षित जैनों के आधार से ही नहीं, अपितु उनके निर्माण में पुराने जैनों के आचार-विचार के साथ उनका भी सम्मिलित होना प्रमुख है । उससे प्रभावित होकर ही कुछ अजैन परिवारों ने पुराने जैनों से मिलकर एक-एक नये संगठन का निर्माण किया होगा। आचार भेद एवं प्रदेश भेद तो कारण रहे ही होंगे। (ii) प्राग्वाट अन्वय तथ्यों के आधार पर यह निर्णीत होता है कि पौरपाट अन्वय के संगठन का एक मूल आधार प्राग्वाट अन्वय है। बड़ोह (मध्य प्रदेश) में प्राप्त जीर्णशीर्ण वनमन्दिर इसका साक्ष्य है। इस वनमन्दिर के समान हो बुन्देलखण्ड के जंगलों अगणित जैन मंदिर एवं तीर्थकर मूर्तियां मिलती है । ये पुराने जैनों के जीवन के उत्कृष्ट उदाहरण हैं । ये सब जैन आचारविचार की पुरानी संस्कृति के प्रतीक है। यह वन मंदिर अनेक मंदिरों का समूह है और इसका पूरा निर्माण अनेक वर्षों में हुआ है । ये मंदिर भट्टारक काल की याद दिलाते हैं। इस मंदिर के गर्भगृहों का निर्माण प्राग्वाट वंश के भाइयों द्वारा कराया गया जैसा कि इस मंदिर के एक गर्भगृह की चौखट पर खूदे लेख से स्पष्ट है : कारदेव वासल प्रणमति । श्री देवचंद आचार्य मंत्रवादिन् संवत ११३४॥ यह स्पष्ट है कि वासल गोत्र प्राग्वाट अन्वय की संतान हैं । यह कोरा अनुमान नहीं है क्योंकि अनेक गर्भगृहों के मतिलेख इसके साक्षी हैं । 'भट्टारक संप्रदाय' में पेज १७२ पर अंकित एक अन्य शिलालेख में कहा गया है कि सूरत पट्ट के द्वितीय भट्टारक प्राग्वाट वंश अष्टशाखान्वय में उत्पन्न हुए थे । वे अपने काल के अनेक राजाओं द्वारा पूजित प्रभावशाली विद्वान् थे। पौरपाट अन्वय के विकास का अनुसन्धान करते समय मैं बुन्देलखण्ड के अनेक गाँवों और नगरों में गया हूँ। मेवाड़ और गुजरात प्रदेश से इस अन्वय का विकास हुआ है, इसलिये इन क्षेत्रों में भी घूमा हूँ। पर मेरे ख्याल में 'प्रान्तिज' को छोड़कर अन्य किसी नगर के जिनमन्दिर अपेक्षाकृत नवीन हैं। 'प्रान्तिज' के जिनमन्दिर में ११३६ ई० (११९३ वि०) में भी एक शिलापट में उत्कीर्ण चौबीसी पाई जाती है। इसे एक बहिन ने स्थापित कराया था। वहाँ ११६२ ई० का एक शिलालेख भी है जिसमें पांच बाल ब्रह्मचारी तीर्थंकरों की मूर्तियाँ अंकित हैं। उसके पादपीठ पर एक लेख अंकित है। इसे यद्यपि अच्छी तरह से नहीं पढ़ा जा सका, फिर भी उससे ऐसा लगता है कि यह प्राग्वाट अन्वय के किसी भाई द्वारा स्थापित कराया गया था। इस तीन प्रमाणों के अतिरिक्त प्राग्वाट वंश से हो पौरपाट अन्वय का विकास हुआ है, इस विषय के अन्य शिलालेखी पोषक प्रमाण यहाँ दिये जा रहे हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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