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________________ जैनों का सामाजिक इतिहास डा० विलास ए० संगवे मानद निदेशक, साहू शोध संस्थान, कोल्हापुर, ( महाराष्ट्र) अध्ययन का एक उपेक्षित क्षेत्र जनों का सामाजिक इतिहास महत्वपूर्ण होते हुए भी अब तक अध्ययन की दृष्टि से लगभग पूर्णतः उपेक्षित रहा है। अमो तक जनों का इतिहास राजनीतिक या सांस्कृतिक दृष्टि से ही लिखा गया है। जैनों के राजनीतिक इतिहास के अन्तर्गत (i) राजाओं, मन्त्रियों एवं सैन्याधिकारियों की प्रशासकीय एवं युद्धगत निपुणतायें (ii) जैनों द्वारा देश के भिन्न-भिन्न भागों में राज्याश्रय के विवरण तथा (iii) राष्ट्र एवं राज्यों के राजनीतिक स्थायित्व या स्वाधीनता संग्राम में जैन व्यापारियों या सामान्य जैन समाज द्वारा किये गये विशिष्ट योगदान का विवरण दिया जाता है। जनों का सांस्कृतिक इतिहास अध्ययन को दृष्टि से पर्याप्त विकसित है। इसके अन्तर्गत भाषा, साहित्य, स्थापत्य, पुरातत्व, संगीत एवं चित्रकला के क्षेत्रों में जनों द्वारा किये गये महत्वपूर्ण योगदान का विवरण और मूल्यांकन किया जाता है। दुर्भाग्य से, जन विद्या-विशारदों ने जनों के सामाजिक इतिहास पर समुचित ध्यान नहीं दिया है । जनों ने प्राचीन काल से लेकर आज तक जैनधर्म की प्रतिष्ठा को न केवल सुरक्षित ही रखा है, अपितु उसे एक जीवन्त धर्म भी बनाये रखा है। इसका कारण यह रहा है कि उन्होंने जनधर्म द्वारा प्रतिष्ठित चारित्र एवं व्यवहार के नियमों का श्रद्धापूर्वक अविरत रूप से पालन एवं प्रदर्शन किया है. इस दृष्टि से उनके सामाजिक जीवन के विविध पक्षों का अध्ययन अत्यन्त महत्वपूर्ण है। वस्तुतः जनों का इतिहास तबतक पूर्ण नहीं माना जा सकता जबतक उनकी राजनीतिक एवं सांस्कृतिक क्रियाशीलता एवं सफलताओं के साथ उस समाज के सामाजिक पक्ष का विवरण भी उसमें समाहित न किया जावे। जैन : एक महत्वपूर्ण अल्पसंख्यक समाज भारत के ईसाई, बुद्ध, सिख, मुस्लिम तथा अन्य अल्पसंख्यक समुदायों की तुलना में जैन समाज अनेक दृष्टियों से महत्वपूर्ण स्थान पर आती है। १९८१ में प्रकाशित भारतीय जनगणना के अनुसार, भारत में विद्यमान छह प्रमुख धर्मावलंबियों में इसके अनुयात्रियों को संख्या सबसे कम है। भारत को समग्र जनसंख्या में इसको आवादी का प्रतिशत लगभग ०.६ है अर्थात् प्रत्येक दस हजार भारतीयों में ८२०० हिन्दू, ११०० मुस्लिम, २५० ईसाई, १९० सिख, ७० बुद्ध हैं जब कि जैन केवल ६० ही हैं । इनकी जनसंख्या अल्प अवश्य है, पर ये भारत के सभी प्रान्तों में फैले हुए हैं। सिखों के समान ये किसी एक क्षेत्र में सघनता से नहीं पाये जाते। सिखों के समान न तो उनकी कोई विशेष वेशभूषा है और न ही उनकी अपनी कोई विशेष भाषा ही है। इस तरह जैन, वास्तव में, भारतीय हैं और इसीलिये, अल्पसंख्यक होते हुए भी, उन्हें सर्वत्र आदर एवं प्रतिष्ठा की दृष्टि से देखा जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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