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________________ २९. पं. जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ [खण्ड वैज्ञानिक महत्व एवं आधार यह है कि हमारे आसपास के वातावरण में अनेक ऐसे सूक्ष्म जीवाणु विद्यमान रहते हैं जो दिन में सूर्य की किरणों से नष्ट हो जाते हैं। रात्रि में सूर्य किरणों के अभाव में वे सूक्ष्म जीवाणु विद्यमान रहते हैं और वे हमारे भोजन को दूषित, मलिन व विषमय कर देते हैं । वे भोजन के माध्यम से हमारे शरीर में प्रविष्ट होकर शरीर में विकृति उत्पन्न कर देते हैं। दूसरी एक महत्वपूर्ण बात यह है कि स्वास्थ्य विज्ञान एवं आहार पाचन सम्बन्धी नियमानुसार हम जो आहार ग्रहण करते हैं, वह मुख से, गले के मार्ग द्वारा सर्वप्रथम आमाशय में पहुँचता है, जहाँ उसकी वास्तविक परिपाक क्रिया प्रारम्भ होती है। परिपाक हेतु वह आहार आमाशय में लगभग चार घण्टे तक अवस्थित रहता है। उसके बाद ही वह आमाशय से नीचे क्षुद्रान्त में पहुँचता है। इसका अभिप्राय यह हुआ कि जब तक भोजन आमाशय में रहता है तब तक मनुष्य को जाग्रत एवं क्रियाशील रहना चाहिए । मनुष्य की जाग्रत एवं क्रियाशील अवस्था में ही आमाशय की क्रिया पूर्णतः संचालित रहती है। मनुष्य की सुषुप्त अवस्था में आमाशय की क्रिया मन्द हो जाती है जिससे मुक्त आहार के पाचन में बाधा एवं विलम्ब होता है । अतः यह आवश्यक है कि मनुष्य को अपने रात्रि कालीन शयन से लगभग ४-५ घण्टे पूर्व ही भोजन कर लेना चाहिए, ताकि उसके शयन करने के समय तक उसके भुक्त आहार का विधिवत् सम्यक पाक हो जावे। इस सिद्धान्त के अनुसार मनुष्य को सायंकाल ६ बजे या उसके कुछ पूर्व ही भोजन कर लेना चाहिए। क्योंकि मनुष्य के शयन का समय सामान्यतः रात्रि को १० बजे या उसके आसपास होता है। अतः जैन धर्म का यह दृष्टिकोण महत्वपूर्ण एवं वैज्ञानिक आधार लिए हुए है। . इसी प्रकार जब वह सायंकाल ६ बजे या उसके आसपास भोजन करता है तो आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के अनुसार दो भोजन कालों का अन्तर सामान्यतः न्यूनातिन्यून आठ घण्टे का होना चाहिए। इसका अभिप्राय यह हुआ कि जो व्यक्ति सायंकाल ६ बजे भोजन करना चाहता है, उसे आवश्यक रूप से प्रातःकाल १० बजे या उसके आसपास भोजन कर लेना चाहिए । जो व्यक्ति प्रातः १० बजे भोजन करता है, वह स्वाभाविक रूप से सायंकाल ६ बजे तक बुभुक्षित हो जायगा । अतः स्वास्थ्य के नियमों में ढला हुआ और आधुनिक चिकित्सा विज्ञान की कसौटी पर खरा उतरने वाला जैन धर्म के द्वारा प्रतिपादित आहार सम्बन्धी नियम न केवल आध्यात्मिक दृष्टि से मनुष्य का विकास करने वाला है, अपितु उसके स्वास्थ्य की रक्षा करता हुआ मानव शरीर को निरोग बनाने वाला और उसे दीर्घायुष्य प्रदान करने वाला है। आहार सेवन के क्रम में शुद्ध एवं सात्विक आहार के सेवन को विशेष महत्व दिया गया है। इस प्रकार का आहार शारीरिक स्वास्थ्य रक्षा में तो सहायक है ही, इससे मानसिक परिणामों की विशुद्धता भी होती है। दूषित, मलिन एवं तामसिक आहार स्वास्थ्य के लिए अहितकारी और मानसिक विकार उत्पन्न करने वाला होता है। कई बार तो यहाँ तक देखा गया है कि आहार के कारण मनुष्य शारीरिक रूप से स्वस्थ होता हुआ भी मानसिक रूप से अस्वस्थ होता है और जब तक उसके आहार में समुचित परिवर्तन नहीं किया जाता तक तक उसके मानसिक विकार का उपशम भी नहीं होता। इसके अतिरिक्त यह विचारणीय है कि जैनधर्म में सभी कन्दमूल अभक्ष्य बतलाए गए हैं और किसी भी रूप में उन्हें सेवन योग्य नहीं माना गया है। इसके पीछे धार्मिक मान्यता यह है कि सभी कन्द मूल में अनन्तकाय जीव विद्यमान रहते हैं। उनको कच्चा खाने में उन जीवों का घात होता है। इससे उन्हें खाने वाला व्यक्ति हिंसा का भागी होता है। धार्मिक दृष्टि से यह बात उपादेय हो सकती है, क्योंकि वहाँ जीवों के प्रति दया भाव रखना और उनका घात नहीं होने देना मुख्य लक्ष्य है। किन्तु क्या यह दृष्टिकोण वैज्ञानिक माना जा सकता है ? विशेष रूप से उस समय जबकि औषध रूप में उनमें से किसी द्रव्य का सेवन अपरिहार्य हो। यहां यह ज्ञातव्य है कि जैन धर्म में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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