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________________ २७४ पं० जगमोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ [खण्ड आहार का काल कुंदकुंद४२ और आशाधर२९ ने बताया है कि द्रव्य, क्षेत्र, काल (रितुयें, दिन), माव एवं शरीर के पाचन सामर्थ्य की समीक्षा कर शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य के लिये भोजन करना चाहिये । यह तथ्य जितना साधुओं पर लागू होता है, उतना ही सामान्य जनों पर भी। निशीथ चूर्णि ( ५९०-६९० ई०) में बताया गया है कि एक ही देश के विभिन्न क्षेत्रों में आहार-सम्बन्धी आदतें और परम्परायें भिन्न-भिन्न होती हैं। जांगल, अ-जांगल एवं साधारण क्षेत्र विशेषों के कारण मानव प्रकृति में विशिष्ट प्रकार से त्रिदोषों का समवाय होता है। यह आहार के घटकों का संकेत या नियन्त्रण करता है। विभिन्न रितुयें भी आहार की प्रकृति और परिमाण को परिवर्ती बनाती हैं। शरद-वसन्त रितु में रुक्ष अन्नपान, ग्रीष्म व वर्षा में शीत अन्नपान, हेमन्त एवं शिविर रितु में स्निग्ध एवं उष्ण आहार लेना चाहिये । उग्रादित्य • ने तो दिन के विभिन्न भागों को ही छह रितुओं में वर्गीकृत कर तदनुसार खानपान का सुझाव दिया है : पूर्वाह्न : वसन्त; मध्याह्न : ग्रीष्म अपराह्न : वर्षा; आद्यरात्रि: प्रावृद; मध्यरात्रि : शरद, प्रत्यूष : हेमन्त । भगवती आराधना में कहा है कि रितु आदि की अनुरूपता के साथ क्षेत्र विशेष की परंपरा भी आहार-काल व प्रमाण को प्रभावित करती है। मूलाचार३२ तो आहार को व्याधि शामक मानता है। यही नहीं, आहार को मनोवैज्ञानिक दृष्टि से ऊत्साहवर्धक एवं भावनात्मकतः संतुष्टि कारक भी होना चाहिये। यह प्रक्रिया आहार द्रव्यों और उनके पकाने की विधि पर भी निर्भर करती है। साधु तो ४६ दोषों से रहित शुद्ध भोजन, विकृति-रहित पर द्रव-द्रव्य युक्त विद्ध भोजन एवं उबला हुआ प्राकृतिक भोजन कर आनन्दानुभूति करता है पर सामान्य जन इसके विपरीत भी योग्यायोग्य विचार कर मोजन करते हैं। आयुर्वेदिक दृष्टि से उग्रादित्य33 का मत है कि भोजन काल तब मानना चाहिये जब (i) मलमूत्र-विसर्जन ठीक से हुआ हो ( ii) अपानवायु निसरित हो चुकी हो ( iii ) शरीर हल्का लगे और इन्द्रियां प्रसन्न हो ( iv ) जठराग्नि उद्दीप्त हो रही हो और भूख लग रही हो (v) हृदय स्वस्थ हो और त्रिदोष साम्य में हो। नेमीचन्द्र चक्रवर्ती ने भी मनोभावनात्मक क्षुधानुभूति, असाता वेदनीय कर्म की उदीरणा, आहार-दर्शन से होने वाली रुचि एवं प्रवृत्ति को आहार काल बताया है। आशाधर ने सूर्योदय से पेंतालीस मिनट बाद से लेकर सूर्यास्त से पौन घंटे पहले तक के काल को सामान्य जनों के लिये आहार काल बताया है। इसके विपयसि में, मूलाचार में साधुओं के लिये सूर्योदय से सवा घंटे बाद तथा सूर्यास्त से सवा घंटे पूर्व के लगभग १० घंटे के मध्य काल को आहार काल बताया गया है। उत्तम पुरुष दिन में एक बार और मध्यम पुरुष उपरोक्त समय सीमा में दिन में दो बार आहार लेते हैं। रात्रिभोजन तो जैनों में स्वीकृत ही नहीं है। इस प्रकार सामान्य मनुष्य का लगभग आधा जीवन उपवास में ही बीतता है। मूलाचार और उत्तराध्ययन के अनुसार, मध्याह्न या दिन का तीसरा प्रहर आहार काल बैठता है। कृषकों के देश में यह काल उचित ही है। पर वर्तमान से आहार काल प्रायः पूर्वाह्न १२ बजे के पूर्व ही समाप्त हो जाता है । महाप्रज्ञ3 ४ का मत है कि वास्तविक आहार काल रसोई बनने के समय के अनुरूप मानना चाहिये जो क्षेत्रफल के अनुरूप परिवर्ती होता है। शास्त्रों में रात्रि भोजन के अनेक दोष बताये गये हैं। प्रारम्भ में आलोकित-पान-भोजन के रूप में इसकी मान्यता थी। तैल-दीपी रात्रि में विद्यत् की जगमगाहट आ जाने से प्राचीन युग के अनेक दोष काफी मात्रा में कम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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