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________________ २७० पं. जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ [ खण्ड से प्राणधारण और शास्त्राभ्यास-दोनों संभावित हैं। कुंदकुंद'५ भी यह मानते हैं कि आहार ही मांस, रुधिर आदि में परिणत होता है । फलतः यह स्पष्ट है कि आहार के शास्वीय उद्देश्य वे ही हैं जिन्हें हम प्रतिदिन अनुभव करते हैं । इन्हें यदि आधुनिक भाषा में कहा जावे, तो यह कह सकते हैं कि शरीर-तंत्र में सामान्यतः दो प्रकार की क्रियायें होती हैं : सामान्य एवं विशेष । सामान्य क्रियाओं में श्वासोच्छावास या प्राणघारण को क्रिया, पाचन क्रिया आदि तथा विशेष क्रियाओं में आजीविका सम्बन्धी कार्य, लिखना-पढ़ना, श्रम, तप और साधना आदि समाहित हैं। आज के आहारविज्ञानियों ने जीव शरीर को कोशिकीय संरचना और क्रियाविधि के आधार पर सारणी २ में दिये गये आहार के तीन अतिरिक्त उद्देश्य भी बताये हैं। इनका उल्लेख शास्त्रों में प्रत्यक्षतः नहीं पाया जाता। वैज्ञानिक शरीर की स्थिति के अतिरिक्त विकास, सुधार व पुनर्जनन हेतु भी आहार को आवश्यक मानते हैं । यह तथ्य मानव की गर्भावस्था से बाल, कुमार, युवा एवं प्रौढअवस्था के निरन्तर विकासमान रूप तथा रुग्णता या कुपोषण के समय आहार-की गुणवत्ता के परिवर्तन से होने वाले लाभ से स्पष्ट होता है। बीसवीं सदी के प्रारंभ में वैज्ञानिकों ने पाया कि कोई कार्य, गति या प्रक्रिया भीतरी या बाहरी ऊर्जा के बिना नहीं हो सकती। शरीर-संबन्धित उपरोक्त कार्य भी ऊर्जा के बिना नहीं होते। इसलिये यह सोचना सहज है कि आहार के विभिन्न अवयवों से शरीर के विभिन्न कार्यों के लिये ऊर्जा मिलती है। यह ऊर्जा-प्रदाय उसके चयापचय में होने वालो जीव-रासायनिक, शरीर क्रियात्मक एवं रासायनिक परिवर्तनों द्वारा होता है। यह ज्ञात हुआ है कि सामान्य व्यक्ति के लिये उपरोक्त लक्ष्यों के पूर्ति के लिए लगभग दो हजार कैलोरी ऊर्जा की आवश्यकता होती है। अतः हमारे आहार का एक लक्ष्य यह भी है कि उसके अन्तर्ग्रहण एवं चयापचय से समुचित मात्रा में ऊर्जा प्राप्त हो। इस प्रकार, वैज्ञानिक दृष्टि से आहार ऐसे पदार्थों या द्रव्यों का अन्तर्ग्रहण है जिनके पाचन से शरीर की सामान्य-विशेष क्रियाओं के लिये ऊर्जा मिलती रहे। यह परिभाषा शास्त्रीय परिभाषा का विस्तृत एवं वैज्ञानिक रूप है। इसमें गुणात्मकता के साथ परिमाणात्मक अंश भी इस सदी में समाहित हुआ है। आहार के भेद-प्रभेद जैन शास्त्रों में आहार को दो आधारों पर वर्गीकृत किया गया है :( i ) आहार में प्रयुक्त घटक और ( ii ) आहार के अन्तर्ग्रहण की विधि । प्रथम प्रकार के वर्गीकरण को सारणी ३ में दिया गया है। इससे प्रकट होता है कि मुख्यतः आहार के चार घटक माने गये हैं जिनमें कही कुछ नाम व अर्थ में अन्तर है । ऐसा प्रतीत होता है कि प्रारम्भ में आहार के केवल दो ही घटक माने जाते थे : भक्त ( ठोस खाद्यपदार्थ ) और पान ( तरल खाद्य पदार्थ ) या पान और भोजन ( भक्तपान, पानभोजन )१६ । यह शब्द विपर्यय भी कब-कैसे हुआ, यह अन्वेषणीय है। प्रज्ञापना में सजीव (पृथ्वो, जलादि ), निर्जीव ( खनिज लवणादि ) एवं मिश्र प्रकार के विघटको आहार बताये गये हैं । इससे प्रतीत होता है कि आहार के घटकगत चार या उससे अधिक भेद उत्तरवर्ती हैं। मेहता ने आवश्यक सूत्र का उद्धरण देते हए औषध एवं भेषज को भी आहार के अन्तर्गत समाविष्ट करने का सुझाव दिया है। इनमें अशन और खाद्य एकार्थक लगते हैं। पर दो पृथक् शब्दों से ऐसा लगता है कि अशन से पक्तान्न ( ओदनादि ) का और खाद्य से कच्चे खाये जाने वाले पदार्थों ( खजूर, शर्करा ) का बोध होता है। पर एकाधिक स्थान में पुआ, लड्डू आदि को भी इसके उदाहरण के रूप में दिया गया है । अतः अशन और खाद्य के अर्थों में स्पष्टता अपेक्षित है। इसी प्रकार अशन, खाद्य और मक्ष्य के अर्थ भी स्पष्टनीय हैं । पान, पेय और पानक भी स्पष्ट तो होने ही चाहिये । आशाघर' ने लेप को भी आहार माना है और तैलमर्दन का उदाहरण दिया है। इसमें तेल का किंचित् अन्तर्ग्रहण तो होता ही है। वृहत्कल्पभाष्य में साधुओं के लिये तीन आहारों का वर्णन किया है जो स्नेह और रस विहीन आहार के द्योतक हैं। मूलाचार२' में चार और छहदोनों प्रकार के घटक बताये गये हैं । ऐसे ही कुछ वर्णनों से इसे संग्रह ग्रन्थ कहा जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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