SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 413
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६४ पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ [खण्ड १. एकेन्द्रिय : (i) पृथ्वी, जल, तेज, वायु, नित्य निगोद, इतर निगोद x २ (वादर-सूक्ष्म) = १२ २. (i) प्रत्येक वनस्पति (प्रतिष्ठित-अप्रतिष्ठित) १४४३ (पर्याप्त, अप०, निवृ०) ४. द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय ३ x ३ (प० अ० नि०) ५. पंचेन्द्रिय तियंच : गर्भज कर्मभूमिज : ३ (जलचरादि) x २ (संज्ञी-असंज्ञी) ४२ (पर्याप्त, निवृत्य पर्याप्त) संमर्छन कर्मभमिज : ३४२४३ (प० अ०, नि०) भोगभूमिज तिथंच : २ (स्थल, नभ) x २ (प०नि०) ६. पंचेन्द्रिय मनुष्य : (i) आर्य खण्ड ३ (५०, अ०, निवृ०) (ii) म्लेच्छ खण्ड ३४२ (प०, नि०) (भोग भूमि, कुभोग भूमि) (ili) देव, नारक २४ २ (प० नि०) १३ १३ ९८ इस विवरण में जीवों के भेद अधिक है, पर इनके वर्गीकरण में विविधता कम हैं। इनका वर्णन स्थान, योनि, कुल, अवगाहना के आधार पर किया जाता है । टीकाकार ने गणित का उपयोग करते हुए १९०, ३८०, ५७० तथा ४०६ जीव समास भी गिनाये है। ऐसा प्रतीत होता है कि जीव विचार में अपर्याप्त के दो भेदों को मान्यता नहीं दी गई है । जीव काण्ड में बताया गया है कि शरीर पर्याप्त के पूर्ण न होने तक जीव निवृत्य पर्याप्त (रचना की अपूर्णता) एवं याग्य पर्याप्तियों के पूर्ण न होने से अन्तर्मुहूर्त में मृत्यु को प्राप्त होने वाले जीव को लब्धि-अप्राप्त कहा गया है। प्राण-सम्बन्धी विवरण दोनों ग्रन्थों में समान है। पर जीव विचार में पर्याप्तियों का विवरण नहीं है । साथ ही जीव विचार में केवल चौरासी लाख योनियों का विवरण है जबकि जीव काण्ड में तीन प्रकार की आकृति योनियों के साथ. गण योनियों (नौ) एवं तीन जन्म प्रकारों का भी विशद वर्णन है। आयु और अवगाहना सम्बन्धी विवरण दोनों में समान है, पर जीव विचार में कुल-कोटियों एवं संज्ञाओं का भी वर्णन नहीं है। यहाँ यह भी ध्यान रखना चाहिये कि यद्यपि श्वेताम्बर परम्परा में प्रज्ञापनादि ग्रन्थों में गति, इन्द्रिय आदि २७ मार्गणा द्वारों की चर्चा है, पर जीव विचार में वह नहीं है। इसके विपर्यास में जीव काण्ड में प्रायः ५०० गाथाओं में १४ मार्गणा द्वारों के माध्यम से जीवों का विशद निरूपण है। प्रज्ञापना के २७ द्वारों में ये चौदह समाहित हैं। जीवकाण्ड में प्रीति-विहीनता, तिर्यक्ता, मन-कर्म कुशलता, ऋद्धि-सुख-दिव्यता एवं जन्म-मरण रहितता के आधार पर पांच गतियों में जीवों के प्रमाण का वितरण है। मनुष्य जीवों के विषय में बताया गया है कि उनमें तीनचौथाई मानुषियाँ होती हैं । मानुषियों से तीन-सात गुने सर्वार्थसिद्धि के देव होते हैं । पर्याप्त मनुष्यों की संख्या ३४ १०८ बताई गयी है। इन्द्रियां मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम एवं शरीर नामकर्म के उदय से निर्मित शरीर के चिह्नविशेष है । ग्रन्थकार ने इसका विषय क्षेत्र, आकार, अवगाहना एवं संख्या (जीव) बतायी है। कायमार्गणा के अन्तर्गत कषटाय का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy