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________________ २५८ पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ [खण्ड प्रायः सभी शास्त्रों में वनस्पतिकायिकों के दो भेद बताए गए हैं : साधारण (अनन्तकाय, निगोद) और प्रत्येक वनस्पति । साधारण वनस्पतियों की शरोर-निष्पत्ति, श्वासोछ्वास, आहार आदि क्रियायें एक साथ होती हैं। इनमें अनन्त जीवों का एक ही शरीर होता है। टीकाकार के अनुसार, साधारण वनस्पति सक्ष्म और स्थल के भेद से दो प्रकार के होते हैं । सूक्ष्म साधारण वनस्पति गोलाकार होते हैं। वे बालाग्र प्रदेश-क्षेत्र में भी असंख्य-संख्या में रह सकते हैं । एक ही शरीर या क्षेत्र में असंख्य या अनन्त सूक्ष्म जीवों के अस्तित्व के कारण इन्हें अनन्तकायिक भी कहते हैं । ये आँखों से दिखाई नहीं देते और सर्वलोक में व्याप्त रहते हैं। इनके निम्न बादररूपों का शास्त्रों में विवरण दिया गया है। टीकाकार ने बताया है कि आगमों में साधारण बादर वनस्पति के ३२ नाम बताये गये हैं। ये नाम उपरोक्त उन्नीस के ही विस्तार हैं। इसी के अन्य रूप में बाइस अभक्ष्यों का भी विवरण दिया गया है। यह कहा गया है कि जीव हिंसा की दृदि से इन्हें न खाना श्रेयस्कर है। प्रज्ञापना में इनके ५० भेद बताए गए हैं। साधारण वनस्पतियों के विपर्यास में, प्रत्येक वनस्पति वे हैं जिनमें एक शरीर में एक ही जीव रहता है। इनकी सात जातियां बताई गई हैं। उन्हीं के विस्तारस्वरूप टीकाकार पाठक ने प्रज्ञापना सूत्र में वर्णित बारह जातियों का नाम दिया है जिनके विशिष्ट नामों की सूची (३३०) सन्दर्भपूर्वक उद्धरित की गई है। ऐसी सूची दिगम्बर ग्रन्थों में नहीं पाई जातो। प्रज्ञापना के अनुसार, प्रत्येक और साधारण वनस्पति के भेद बादर-जाति में हो होते हैं, पर टीकाकार ने इन्हें सूक्ष्म और बादर दोनों प्रकार का बताया है। उत्तराध्ययन के अनुसार, सूक्ष्म वनस्पति जीवों की एक ही कोटि है जो अदृश्य, अनन्त एवं लोक व्याप्त है। वहाँ प्रत्येक वनस्पति के बारह तथा साधारण के २२ प्रकार बताये गये है। टीकाकार पाठक ने साधारण वनस्पतियों के दो अन्य भेद भी निरूपित किये हैं-सांव्यवहारिक और असांव्यवहारिक । इन्हें दिगम्बर परम्परा में इतरनिगोद एवं नित्यनिगोद के समकक्ष मानना चाहिये। नित्यनिगोदो अपनो जाति से उत्परिवर्तित नहीं होते जब कि इतरनिगोदी में यह क्षमता होती है। वनस्पति जगत् का इतना विस्तार दिगम्बर परम्परा में नहीं पाया जाता । लेकिन इस परम्परा के विवरण में कुछ विशेषताएँ हैं। है। मलाचार के अनसार वनस्पति प्रत्येक और साधारण कोटि के होते हैं। ये दोनों ही दो प्रकार के होते है वोजोत्पन्न और सम्मूर्छन । वीजोत्पन्नों में मुल वीज, अग्र वीज, पर्व वीज, कंद वोज, स्कन्ध वोज और वीज-वीज के रूप में छह प्रकार के वनस्पति होते हैं। इनके विपर्यास में, सम्मुर्छन वनस्पपियों में कन्द, मूल, छाल, स्कन्ध, पत्र, किसलय, फल, फल, गुच्छ, गुल्म, बेल, मृण और पर्व या गांठ वाले १३ प्रकार के वनस्पति होते हैं । इसके अतिरिक्त एक अन्य गाथा में काई, पणक, कूड़े-करकट में होने वाले वनस्पति, किण्व और कुकुरमुत्ते की जातियाँ भी बताई गई है। सम्मूर्छन वनस्पति के लिये किसी भी प्रकार के वीज या केन्द्र की आवश्यकता नहीं होती। ऐसा प्रतीत होता है कि दिगम्बर परम्परा में वनस्पति की कोटि उसके जन्म एवं विकास को दशाओं पर निर्भर करती है। इस परम्परा में प्रज्ञापना के विपर्यास में साधारण ओर प्रत्यक-दोनों कोटियों के सूक्ष्म और बादर भेद भो गिनाये हैं। नेमचन्द्राचाय भो इस परम्परा को मानते हैं । दशवैकालिक में सम्मूर्छन वनस्पति कोटि का उल्लेख है। स्थावर-भेदों के परिगणन के विवरण में यह बताया गया है कि रूप, रस, गन्ध, वर्ण एवं देश-काल भेदों के कारण सभी जाति के भेद-प्रभेदों की संख्या अगणित हो सकता है। दिगम्बर परम्परा में अगणितता को यह सम्भावनात्मक व्याख्या नहीं पाई जाती। यहाँ यह उल्लेख ज्ञानवर्धक होगा कि युवाचार्य महाप्रज्ञ ने यह शंका उठाई है कि वनस्पतियों की सजीवता तो अनेक दर्शन, और अब विज्ञानी भी, मानते हैं, पर पृथ्वी, जल, तेज और वायु को स्वयं सजीवता न बौद्ध और नैयायिक हो मानते हैं और न विज्ञान ही मानता है । फिर शास्त्र-संगति कैसे बैठायी जावे ? इसके समाधान में उन्होंने बताया है कि जैन दर्शन समस्त दृश्यजगत् को सजीव और जीव के परित्यक्त शरीर के रूप में दो ही प्रकार का मानता है। इसके अनुसार, सभी पदार्थ मूल में सजीव ही होते है, शस्त्रोपहति, उष्णता, विरोधिद्रव्य संयोग से उनमें निर्जीवता आ जाती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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