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________________ आशीर्वचन एवं शुभकानाएँ (अ) पढ़ाई और सान्त्वना सामान्यतः मैं अनुशासन और अध्ययन प्रिय माना जाता था । पर एक बार मैं मध्यमा अन्तिम के कुछ छात्रों के प्रलोभन में आकर उनके साथ दो-दो शो सिनेमा देखने चला गया। शाम को हमारी खोज हुई और हम सिनेमा हाल से पकड़- बुलाये गये । जैसे-तैसे रात तो कटी पर प्रातः की कक्षा के बाद पंडित जी ने मुझे रोका और मुझे १०-१५ बेंत लगाये । अन्य छात्रों की कोई सजा नहीं दी गयी। मुझे मन में काफी बेचैनी रही। पर, रात जब मैं सो रहा था, तो पंडित जी ने मुझे उठाया और सजा के बारे में पूछा "मैं सबसे गरीब हूँ, मेरा कोई बड़ा रिश्तेदार नहीं है । इसीलिये मुझे सजा मिली ।" मैंने कहा । "तुम नहीं समझे । अन्य लड़के धनी हैं, उन्हें आगे पढ़ना नहीं है । उन्हें किसी भी व्यसन से कोई अंतर नहीं पड़ता । पर तुम्हें तो आगे पढ़ना है, तुम अभी से व्यसनों में फंस जाओगे, तो आगे कैसे बढ़ोगे ? तुम आदर्श विद्यार्थी हो । मैं तुम्हें नहीं बिगड़ने देना चाहता ।” इन वाक्यों से मेरी सारी पीड़ा तो गई हो, मुझे पंडित जी के अंतरंग बड़प्पन के दर्शन भी हुए । (ब) एक समय में चार परीक्षायें उस वर्ष मैंने शिक्षा-संस्था के नियमों के विरुद्ध वर्ष में चार परीक्षाओं ( धार्मिक, वैद्यविशारद, मैट्रिक, पूर्व मध्यमा ) के फार्म भरे। किसी ने इसकी शिकायत पंडित जी से कर दी । उन्होंने मुझसे तैयारी के बारे में पूछा। फिर उन्होंने कहा, "ज्ञान बढ़ाने के लिये यदि नियमों में बाधा भी पड़ती है, तो मुझे आपत्ति नहीं है । " बाद में जब मैं चारों परीक्षाओं में सफल रहा, तो पंडित जी ने मुझे पुरस्कृत भी किया। उन्होंने कहा, "हम शिक्षक तो कीचड़ में पड़े हुए पत्थर के समान हैं जो अपने विद्यार्थियों को बेदाग निकालता है और बुराई का कीचड़ उन्हें नहीं लगने देता । अपनी शिक्षा और संस्कार से हमारे विद्यार्थी बेदाग जीवन बितायें, यही हमारी कामना है ।" १५ मुझे लगता है कि मेरे साथ उनके अन्य शिष्यों ने भी उनकी इस कामना का स्मरण रखा है । इसीलिए वे आज प्रतिष्ठित पदों पर है । (स) साधन और साध्य की श्रेष्ठता कटनी की पढ़ाई समाप्त कर पंडित जी मुझे बनारस भेजना चाहते थे । पर मेरे पास तो उतने पैसे नहीं थे । उसी समय काशी से एक विद्यार्थी आये और विनय करने पर उन्होंने अपना रिटर्न कंसेशन मुझे दिया । मैंने जब पंडित जी से यह कहा, तो वे नाराज हुए और कंसेशन लेकर उन्होंने मेरे सामने ही फाड़ दिया । कहने लगे "तुम बनारस नीति सीखने जा रहे हो । उसकी नींव क्या इस अनीति पर रखोगे ? साध्य की श्रेष्ठता के लिये साधन की श्रेष्ठता भी चाहिये ।" उनके इस उपदेश से मैं तो निराश हो गया। पर कुछ ही क्षणों में मैं क्या देखता हूँ ? पंडित जी ने अपनी जेब से तीस रुपये निकाले और मुझे दिये । बोले, "लो, बनारस जाओ। वहाँ से विद्वान् बन कर लौटना । " उनके इस वाक्य ने मेरी जीवन धारा ही बदल दी। मैं आज जो कुछ भी हूँ, उनका आशीर्वाद ही है । पंडित जी सिद्धान्त और शास्त्र के ज्ञान में जितने बड़े है, उससे कहीं अधिक सदाचार और व्यवहार में उनका बड़प्पन अन्तर्निहित है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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