SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 377
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन शास्त्रों में वैज्ञानिक संकेत पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री कुंडलपुर, म०प्र० जैन आगम में यत्र-तत्र ऐसे स्थल भी है जिनमें आधुनिक वैज्ञानिक तत्वों के संकेत विपुल मात्रा में पाये जाते हैं। अनेक स्थल ऐसे भी हैं कि जिन पर अभी वैज्ञानिक शोध कार्य नहीं हुए। कुछ स्थल ऐसे भी हैं जिन पर जैन चिन्तकों का भी ध्यान आकर्षित होना चाहिए। जो हमारी धारणाएँ हैं, उनसे भिन्न धारणा करने के लिए अनेक स्थल हमें बाध्य करते हैं । मेरे अध्ययन काल में जा स्थल मुझे ऐसे प्रतीत हुए, उनका संक्षिप्त विवेचन मैं इस लेख द्वारा विद्वान् जनों के सम्मुख प्रस्तुत कर रहा हूँ । उन स्थलों पर मैंने कुछ सम्भावनाएं भी इसमें व्यक्त को हैं जो आप सबका ध्यान आकर्षित करने के लिए है । हो सकता है कि मेरे चिन्तन की गलत धारा हो या सही हो पर विद्वानों को चिन्तन करने के लिए उन्हें प्रस्तुत कर रहा | आप सबके चिन्तन और अध्ययन से उन पर नया प्रकाश मिल सकेगा, ऐसी आशा करता हूँ । मैं यहाँ विद्वज्जनमान्य उमास्वामी के तत्वार्थ सूत्र के आधार पर हो इनका निर्देश करता हूँ । १. तैजस शरीर के स्वरूप पर विचार सभी संसारी जीवों के तैजस, कार्मण - दो शरीर सदा पाये जाते हैं, यह बात सर्वस्य सूत्र द्वारा प्रतिपादित है । यह शरीर अनन्तगुण प्रदेश वाला है, अप्रतीघात है और परम्परा से अनादि काल से है । इसके स्वरूप के विवेचन में आचार्य पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि में ये शब्द लिखे हैं : यत्तेजोनिमित्तं, तेजसि वा भवं तत्तैजसम् । जो तेज में निमित्त हो या तेज में उत्पन्न हो वह तेजस है। इस तेजस शरीर को सौपभोग भी नही बताया गया और निरूपभोग भी नहीं लिखा गया अर्थात् इन्द्रियादि द्वारा अर्थ को विषय करने में निमित्त यह नहीं है जैसे अन्य औदारिकादि तीन शरीर हैं तथा इसे कार्मण शरीर की तरह निरूपभोग भी नहीं माना। विचारना यह है कि सौपभोग भी न हो और निरूपभोग भी न हो, तो यह तीसरी अवस्था इसकी क्या है । निरूपभोग नहीं है - इसका कारण आचार्य लिखते हैं कि तेजस, योग में भी निमित्त नहीं है, इसलिए उपभोग निरूपभोग के सम्बन्ध में इसका विचार ही नहीं हो सकता । यह केवल औदारिक शरीरों में दोति देता है, ऐसी मान्यता इस समय तक चली आ अधिक विचार नहीं हुआ । रही है। इसके सम्बन्ध में इससे सम्भावनाएँ : 'तेजसमपि' सूत्र की व्याख्या में इसे भी लब्धि प्रत्यय माना है और वैक्रियक को भी लब्ध प्रत्यय माना है । तथापि दोनों शरीरों के निर्माण पृथक्-पृथक् वर्गणाओं से है । वैक्रियक तो आहार वर्गणा से ही निर्मित है अतः ऋद्धिधारी मुनि का औदारिक शरीर ही विक्रिया करने की विशेष योग्यता बाला बन जाता है। ऐसी मान्यता है । पर शुभ तैजस जो एक प्रकार से शुभ्र प्रकाश रूप में और अशुभ तैजस ज्वाला रूप में प्रगट होता है, वह क्रियात्मक है ? मेरी दृष्टि में वह तैजस वर्गणा निमित्तक ही होना चाहिए। सूत्रकार ने तो दोनों शरीरों को ही लब्धि प्रत्यय लिखा है । उसकी टीका में उसे ओदारिक शरीर हो इस रूप परिणमता है ऐसा नहीं लिखा। 'तेजसि भवं वा' पर विशेष विचार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy