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________________ मन्त्र योग और उसकी सर्वतोभद्र साधना डॉ० रुद्रदेव त्रिपाठी बृजमोहन बिड़ला शोधकेन्द्र, उज्जैन ( म०प्र०) योगविद्या भारतवर्ष की अत्यन्त प्राचीन विद्या है। इस विद्या का विस्तार अनेक रूपों में हआ है। यौगिकसाधना के भिन्न-भिन्न प्रकार हयारे देश में प्रचलित रहे हैं और उन्हीं के आधार पर योग-सम्प्रदायों का स्वतन्त्र रूप से विकास भी पर्याप्त मात्रा में होता रहा है। योग-मार्ग की प्रमुख दो धाराएँ मानी जाती है, १. चित्तवृत्ति-निरोधमूलक और २. शारीरिक क्रियासम्पादनमूलक । इन दोनों की प्रक्रियाएँ भी दो प्रकार की हैं : १. केवल प्रक्रियारूप तथा २. मन्त्राराधन-पूर्वक प्रक्रियारूप । जब योग-साधक चित्तवृत्ति के निरोध के लिये आन्तरिक और बाह्य शारीरिक क्रियाओं को संयत बनाने का प्रयास करता है, तो वह प्रथमकोटि में आता है। यदि उस क्रिया के साथ-साथ इष्टमन्त्र अथवा तत्तत स्थानों की अधिष्ठात्री शक्तियों के मन्त्र अथवा बीजमन्त्रों का जप भी करता है, तो वह द्वितीय कोटि में आता है। योग के अनेक रूप ___ योगशास्त्र में जिस योग की चर्चा हुई है, वह 'राजयोग' है । इस योग पद्धति का सर्वाङ्ग विवेचन महषि पतञ्जलि वे चार पादों में किया है। इनमें क्रमशः योग और योगाङ्गों का प्रतिपादन करते हुए उससे मिलने वाले लाभों का स्थूल एवं सूक्ष्म विवरण देकर चित्तवृत्तिनिरोध-पूर्वक 'समाधि' प्राप्ति का मार्ग दिखलाया है। यह योग-विधान यहीं सिमट कर नहीं रहा अपितु इसके प्रत्येक अङ्ग-प्रत्यङ्ग के विषय में विभिन्न आचार्यों ने विस्तार-पूर्वक चिन्तन-मनन भी प्रस्तुत किया। योग का दूसरा प्रकार 'हठयोग' के नाम से चचित हुआ। हठयोग के आयामों में कतिपय आङ्गिक-क्रियाओं तथा प्राणवाय-साधना से सम्पूर्ण प्रक्रियाओं का बाहुल्य अपने क्षेत्र का सर्वोत्तम साधक बना । चौरासी आसन और कितने ही उपआसन इसके साक्षी है कि "हठयोग की साधना से संयम सधता है, नियम नियत होता है, प्राण-साधना परिष्कृत होती है तथा समाधि-सिद्धि का सहज लाभ मिलता है ।" मनोयोग-पूर्वक की गई हठयोग-साधना साधक को चरम लक्ष्य तक पहुँचाने में पूर्णतः क्षम है। यौगिक-प्रक्रियाओं में 'मन्त्र-योग' का तीसरा एवं बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह स्वाभाविक योग के नाम से विख्यात 'महायोग' के अवस्था-भेदात्मक चार योगों में से एक है। इस योग का मुख्य लक्ष्य मन्त्र के आश्रय से जीव और परमात्मा का सम्मेलन है । शब्दात्मक मन्त्र के चैतन्य हो जाने पर उसकी सहायता से जीव क्रमशः ऊध्वं गमन करता हुआ परमात्मा के धाम में स्थान प्राप्त कर लेता है । वैखरी शब्द से क्रमशः मध्यमावस्था का भेदन कर पश्यन्ती शब्द में प्रवेश ही मन्त्रयोग का मुख्य उद्देश्य है। यह पश्यन्ती शब्द स्वयंप्रकाश चिदानन्दमय है। चिदात्मक पुरुष की वही अक्षय और अमर षोडषी कला है। वही आत्मज्ञान, इष्टदेव-साक्षात्कार अथवा शब्दचैतन्य का उत्कृष्ट फल है । मन्त्रयोग के प्रकार विशेष अनेक हैं जिनका विचार हम आगे करेंगे । 'लय-योग' राजयोग का एक भाग है, ऐसी सर्वसामान्य की मान्यता है । इस योग के प्रवर्तकों का कथन है कि-'यदि भक्ति, ज्ञान, वैराग्य इत्यादि गुणों का उत्कर्ष स्वतः करना अपेक्षित हो, तो साधक को लय-योग का आश्रय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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