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________________ आशीर्वचन एवं शुभकामनाएँ पण्डित हीरालाल जैन मन्त्री, दिगम्बर जैन विद्वत् परिषद्, दिल्ली पण्डितजी अनुपम, अनुकरणीय एवं दुर्लभ व्यक्तित्व के धनी हैं। उनकी विचारधारा, जीवनपद्धति एवं कार्यपद्धति पर उनके पिताजी के अतिरिक्त पूज्य वर्णी जी एवं पं० देवकीनन्दन जी का विशेष प्रभाव है। इससे पण्डित जी ज्ञानी तो बने ही, साथ ही साथ उत्कृष्ट समाज-सेवी, दृढ़ श्रद्धानी, संस्था-पोषक, छात्र-सहायक, मनोमालिन्य-दूरक एवं अध्यात्म मार्गी बने । वस्तुतः वे व्यक्ति नहीं, एक संस्था है। वे समाज की बीसवीं सदी के जीवन्त इतिहास हैं। मेरी उनसे प्रार्थना है कि इसी सदी के जैन समाज का इतिहास लिखकर भावी पीढ़ी के लिये प्रेरणास्रोत बनें। पण्डित जी अपूर्ववक्ता, परम मुनिभक्त, आदर्श समाज सेवी हैं। वे प्रगतिशील भी हैं। उन्होंने ही विदिशा के सेठ शिताबराय लखमीचन्द्र जी को गजरथ न चलाकर धवलांदि ग्रन्थों के प्रकाशन का सुझाव दिया था। इससे जिनवाणी की अनुपम सेवा हुई है। पण्डित जी से मेरा लगभग पचास वर्षों से सम्बन्ध है। मैं उनके सभी आकर्षक रूपों से परिचित हैं। कटनी को केन्द्र बनाकर उन्होंने जो अखिल भारतीयता अजित की वह नयी पीढ़ी के लिये प्रकाश-दीप हैं। यह सदैव अपनी आभा विखेरता रहे। अणुव्रतों को प्रतिमूत्ति डॉ. राजराम जैन आरा ___ यदि महान् दार्शनिक प्लेटो, सुकरात, अरस्तू, कन्फ्यूशियस एवं आचार्य समन्तभद्र के व्यक्तित्व की झांकी लेना हो, तो आप पं० जगन्मोहनलालजी के दर्शन कर लीजिए। है ऐसा कोई त्यागी महाश्रावक, जिसने अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए अथक परिश्रम किया हो, अपने पुत्रों को सुयोग्य बनाने के लिए जिसने घोर साधना की हो और जब वे अपने-अपने कार्यों में लग कर समृद्ध हो गए हों, और वार्धक्य के दिनों में विश्रामपूर्वक उसके फल-भोग का जब समय आ गया हो, तब स्वयं अपनी आज्ञाकारिणी धर्मपली, प्रिय पूत्रों एवं भद्रप्रकृति-पुत्रवधुओं को छोड़कर गहविरत परिव्राजक के वेश में निकल पड़ा हो? "श्रमण-संस्कृति त्याग की संस्कृति है, भोग की नहीं", इस सूक्ति-वाक्य को उन्होंने अक्षरशः अपने जीवन में उतारा है। पूज्य पण्डितजी जिस प्रकार सामाजिक जीवन में सत्यनिष्ठ रहे, उसी प्रकार साहित्यिक जीवन में भी। उनका विषयवस्तु का विश्लेषण, गूढ दार्शनिक विचारों का सोधी सादी सरल-भाषा में स्पष्टीकरण तो प्रशंसनीय है ही, इसके अतिरिक्त भी शत-प्रतिशत नैतिक ईमानदारी उनकी उन भूमिकाओं में दृष्टिगोचर होती है, जहां उन्होंने उन व्यक्तियों के प्रति भी अपना आभार प्रदर्शित किया है, जिनसे परोक्षतः यत्किञ्चत् भी सहायता या प्रेरणा उन्हें मिली है। __ आज पण्डित जी निरतिचार अणुव्रतों की साकार मूत्ति बन गए हैं । वे ऐसे विशाल वटवृक्ष है, जिनकी शीतल छाया में सभी को सुख-शान्ति मिलती है, विद्वानों की प्रेरणा मिलती है, छात्रों को पथ-प्रदर्शन, साधन-विहीनों का सहायता और समस्याग्रस्तों को समस्याओं का समाधान । उनके सान्निध्य में ऐसा अनुभव होता है जैसे सतयुग पुनः लौट आया हो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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