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________________ जैन शास्त्रों में मन्त्रवाद २०९ कर लिया जाता है । सामान्यतः जपो की निश्चित संख्या नहीं होती और जप तब तक करना चाहिये, जब तक मन्त्र सिद्ध न हो जावे । णमोकार मन्त्र के विषय में यह बताया गया है कि इसका सात लाख जप करने से कष्टमुक्ति और दारिद्रय नाश होता है । मन्त्र सिद्धि का मान मन्त्राधिष्ठाता देवताओं की उपस्थिति से होता है। जप करने के लिये निश्चित एवं शुद्ध स्थान पर एक चौ-पाट रखकर उसके बीच में सांथिया बनाना चाहिये । उसके चारों कोनों पर चार और मध्य में एक-कुल पांच कलश रखें। ये कलश नये हों, प्रत्येक में हल्दी की गांठे, सुपारी तथा अक्षत ( एक में सवा रुपया ) डालें। उनके मुख पर नारियल, तूस, माला रखकर उन्हें सजा दें। कलशों के साथ ही पंचरंगी या केशरिया ध्वजाओं के चार थपे रखें। चौपटा के पूर्व या उत्तर में सिंहासन पर विनायक यन्त्र रखें। उत्तर या पूर्व दिशा में अखंड-ज्योति धृत या तैल दीप रखें। इसके बाद जपासन के समक्ष धूपघट, धूपपात्र, सूत्र की माला एवं जपगणना हेतु कुछ बादाम, सुपारी या लोगें। साथ ही, यदि मन्त्र याद न हो, तो उसे शुद्ध रूप में कागज पर लिखकर सामने रखे । मन्त्र संकल्प को भी चौ-प्राट के मध्य कलश के पास लिखकर रखें। ___ इसके बाद, मंगलाष्टक का पाठ करते हुए पुष्पवर्षा करें। तदनन्तर शरीर की रक्षा तथा विभिन्न दिशाओं से आने वाले विघ्नों की शांति के लिये मंत्रोच्चारण पूर्वक कर-न्यास, अंगन्यास और दिशाबंधन करें। कलाई में रक्षासूत्र बाँधे, तिलक लगावें और यज्ञोपवीत बाँधे । इसके बाद यन्त्र का अभिषेक और पूजन करें। फिर उद्देश्य-विधान पूर्वक जप का संकल्प करें और जल छिड़कें। अब मन्त्र जप प्रारम्भ करने के पूर्व नौ वार णमोकार मन्त्र पढ़ें और जप प्रारम्भ करें। माला-जप में, या अन्य विधि में प्रत्येक माला (१०८ वार जप ) पूर्ण होने पर, धूप खेलें, तो अच्छा रहेगा। इस प्रसंग में काम आने वाली विधि व मन्त्रों का विवरण साहित्याचार्य ने दिया है। यह क्रिया प्रत्येक वार जप प्रारम्भ करने के पूर्व प्रातः एवं सायं करनी चाहिये। ऐसा माना जाता है कि एक दिन एकवार जपने पर एक क्ति णमोकार मन्त्र के समान ३५ अक्षर के मन्त्र को एक घंटे में हजार वार जप करता है। प्रायः मन्त्र इससे छोटे ही होते हैं। अतः एक दिन में पांच-से-दस हजार तक जप हो सकते हैं। इसी आधार पर एवं उद्देश्य के अनुरूप जप संख्या निश्चित की जाती है। आचार्य रजनीश जप की संख्या निश्चित नहीं करते, वे तीन माह तक प्रतिदिन तीस मिनट का जप करने के लिये कहते हैं। इनकी प्रक्रिया में पूर्वोक्त वातावरण निर्मात्री एवं मनोवैज्ञानिकतः प्रमावशील पूर्वपीटिका का महत्व नहीं माना जाता, पर 'रेचन' की उनकी प्रक्रिया मी शास्त्रीय प्रक्रिया से अच्छी नहीं प्रतीत होती। यह अपनी अपनी रुचि का प्रश्न है। जप संख्या पूर्ण होने पर अथवा मन्त्र सिद्धि होने पर पूजा और हवन द्वारा साधना की मन्तिम विधि सम्पन्न की जाती है। मंत्र को सफलता को पहिचान यह माना जाता है कि प्रत्येक मन्त्र के अधिष्ठाता देव-देवियाँ होते हैं। मन्त्र सिद्ध होने पर वे साधक के समक्ष अपने सौम्य रूप में प्रकट होते हैं। उनकी उपस्थिति लौकिक मन्त्रसिद्धि का प्रतीक है। धरसेनाचार्य ने पुष्पदंत-भूतबलि की परीक्षा उनकी मंत्रज्ञता के आधार पर ही की थी। इसी सिद्धि के आधार पर वे धरसेन से आगम विद्या प्राप्त कर सके । मन्त्र-साधना की सफलता विशिष्ट प्रकार के स्वप्नों से भी ज्ञात होती है। जब साधना-समय में साधक के स्वप्न में सफेद हाथी, घोड़ा, पूर्ण कलश, सूर्य, चन्द्र, समुद्र, शासन देवता या जिन बिब के दर्शन होते हैं, तो इन्हें मन्त्र सिद्धि का प्रतीक माना जाता है । मन्त्र सिद्धि की संभावना का अनुमान काकिणी लक्षण विधा से भी लगाया जा सकता है। अनेक साधकों को मंत्र सिद्धि नहीं होती, अतः वे और अन्य जन मन्त्रों पर अविश्वास करने लगते हैं। इस विफलता के निम्न प्रमुख कारण संभव हैं: २७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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