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________________ ३] णमोकार मन्त्र और मनोविज्ञान १६५ कहलायेगा। अतः मूल प्रवृत्तियों में दमन, विलयन, मार्गान्तरीकरण और शोधन-ये चार परिवर्तन होते रहते हैं। प्रत्येक मूल प्रवृत्ति का बल उसके बराबर प्रकाशित होने से बढ़ता है। यदि किसो मूल प्रवृत्ति के प्रकाशन पर कोई नियन्त्रण नहीं रखा जाता है, तो वह मनुष्य के लिये लाभकारी न बनकर हानिप्रद हो जाती है। अतः दमन की क्रिया होनी चाहिए। उदाहरणार्थ, यों कहा जाता है कि संग्रह की प्रवृत्ति यदि संयमित रूप में रहे, तो उससे मनुष्य के जीवन की रक्षा होती है। किन्तु जब यह अधिक बढ़जाती है, तो कृपणता और चोरी का रूप धारण कर लेती है। इसी प्रकार द्वन्द्वता या युद्ध की प्रवृत्ति प्राण-रक्षा के लिए उपयोगी है, किन्तु जब यह अधिक बढ़ जाती है तो यह मनुष्य की रक्षा न कर उसके विनाश का कारण बन जाती है। इसी प्रकार अन्य म के सम्बन्ध में भी कहा जा सकता है। अतएव जीवन को उपयोगी बनाने के लिए यह आवश्यक है कि मनुष्य समय-समय पर अपनी प्रवृत्तियों का दमन करे और इन्हें अपने नियन्त्रण में रखे । व्यक्तित्व के विकास के लिए मूलप्रवृत्तियों का दमन उतना ही आवश्यक है, जितना उनका प्रकाशन । मूल प्रवृत्तियों का दमन विचार या विवेक द्वारा होता है। किसी बाह्य सत्ता-द्वारा किया गया दमन मानव जीवन के लिए हानिकारक होता है। अतः बचपन से ही णमोकार मन्त्र के आदर्श द्वारा मानव को मूल प्रवृत्तियों का दमन सरल और स्वाभाविक है । इस मन्त्र का आदर्श हृदय में श्रद्धा और दृढ़ विश्वास को उत्पन्न करता है, जिससे मूल प्रवृत्तियों का दमन करने में बड़ी सहायता मिलती है। णमोकार मन्त्र के उच्चारण, स्मरण, चिन्तन, मनन और ध्यान द्वारा मन पर इस प्रकार के संस्कार पड़ते हैं, जिससे जीवन में श्रद्धा और विवेक का उत्पन्न होना स्वाभाविक है। यतः मनुष्य का जीवन श्रद्धा और सद्विचारों पर ही अवलम्बित है, वह श्रद्धा और विवेक को छोडकर मनुष्य की तरह जीवित नहीं रह सकता है, अतः जीवन की मूल प्रवृत्तिों का दमन या नियंत्रण करने के लिए महामंगल वाक्य णमोकार मन्त्र का स्मरण परम आवश्यक है। इस प्रकार के धार्मिक वाक्यों के चिन्तन से मूल प्रवृत्तियाँ नियन्त्रित हो जाती हैं तथा जन्मजात स्वभाव में परिवर्तन हो जाता है। नियन्त्रण को यह प्रवृत्ति धीरे धीरे आती है। ज्ञानार्णव में आचार्य शुमचन्द्र ने बतलाया है कि महामंगल वाक्यों की विद्युत शक्ति आत्मा में इस प्रकार झटका देती है, जिससे आहार, भय, मैथुन और परिग्रहजन्य संज्ञाएं सहज में परिष्कृत हो जाती है। जीवन के धरातल को उन्नत बनाने के लिए इस प्रकार मंगल वाक्यों को जीवन में उतारना परम आवश्यक है। अतएव जीवन की मूल प्रवृत्तियों के परिष्कार के लिए दमन क्रिया को प्रयोग में लाना आवश्यक है। मूल प्रवृत्तियों के परिवर्तन का दूसरा उपाय विलयन है। यह दो प्रकार से हो सकता है-निरोध द्वारा और विरोध द्वारा । निरोध का तात्पर्य है कि प्रवृत्तियों को उत्तेजित होने का ही अवसर न देना। इससे मूल प्रवृत्तियां कुछ समय में नष्ट हो जाती है। विलियम जेम्स का कथन है कि यदि किसी प्रवृत्ति को अधिक काल तक प्रकाशित होने का अवसर न मिले तो वह नष्ट हो जाती है। अतः धार्मिक आस्था द्वारा व्यक्ति अपनी विकार प्रवृत्तियों को अवरुद्ध कर उन्हें नष्ट कर सकता है। दूसरा उपाय विरोध द्वारा प्रवृत्तियों के विलयन के लिए कहा गया है, उसका अर्थ है कि जिस समय एक प्रवृत्ति कार्य कर रही हो, उसी समय उसके विपरीत दूसरी प्रवृत्ति को उत्तेजित होने देना। ऐसा करने से दो पारस्परिक विरोधी प्रवृत्तियों के एक साथ उभड़ने से दोनों का बल धट जाता है। इस तरह दोनों के प्रकाशन को रीति में अन्तर हो जाता है अथवा दोनों शान्त हो जाती हैं । जैसे द्वन्द्व प्रवृत्ति के उभड़ने पर यदि सहानुभूति की प्रवृत्ति उभाड़ दी जाये तो उक्त प्रवृत्ति का विलयन सरलता से हो जाता है। णमोकार मन्त्र का स्मरण इस दिशा में भी सहायक सिद्ध होता है। इस शुभ प्रवृत्ति के उत्पन्न होने से अन्य प्रवृत्तियाँ सहज में विलीन की जा सकती है। मूल प्रवृत्ति के परिवर्तन का तीसर। उपाय मार्गान्तरीकरण है। यह उपाय दमन और विलयन के उपाय से श्रेष्ठ हैं। मूल प्रवृत्ति के दमन से मानसिक शक्ति संचित होती है, जब तक इस संचितशक्ति का उपयोग नहीं किया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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