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________________ आशीर्वचन एवं शुभकामनाएँ सेवाभावी पण्डित जी डा० एस० सी० जैन जवाहरगंज, जबलपुर वर्णी गुरुकुल, मढ़िया जी प्रारम्भ में लाखा भवन में लगता था। उस समय पण्डित जी उसके अधिष्ठाता थे। प्रायः २-४ दिनों में कटनी से आकर बालकों को शिक्षा एवं उपदेश देते थे। एक बार जबलपुर में मलेरिया का प्रकोप पड़ा। गुरुकुल के बच्चे भी उससे अछूते न रहे। गोली तो सबको खानी ही पड़ती थी। उन्हों दिनों एक रोगी बालक ने कक्षा में ही वमन और दस्त कर दिए । घृणा के कारण उसे साफ करने का किसी को साहस नहीं हो रहा था। संयोगवश उसी समय पण्डित जी कक्षा में आए। उन्होंने रोगी की सेवा पर उपदेश दिया। पर घृणा के कारण कोई भी छात्र इससे प्रभावित न हुआ। फलतः पण्डित जी ने तत्काल कपड़े बदले और वमन-दस्त को साफ करने के लिए तैयार हो गये। यह देख छात्रों के मन में उथल-पुथल हुई। एक छात्र ने तत्काल वह वमन-दस्त साफ कर दिया। पण्डित जी उससे प्रसन्न हए और उसकी फीस माफ कर दी। तपर प्रेरक स्मृति-कण श्री जीवनलाल शास्त्री आयुर्वेदाचार्य ललितपुर (अ) आत्मनिर्भर बनो एक बार कटनी विद्यालय के अनेक छात्र पण्डित जी के आचार्यत्व में सिद्धचक्र विधान कराने जबलपुर गये थे। हम लोग जिस कमरे में ठहरे थे, उसमें झाडू नहीं लगती थी। कमरे को गन्दा देख पूज्य पण्डित जी स्वयं झाडू लेकर उसे झाड़ने लगे। हम सब यह देख चकित हो गये एवं पश्चात्ताप भी करने लगे। उस दिन पण्डित जी ने हमें कहा, "तुम लोग अपना काम भी स्वयं नहीं कर सकते । आलसो बनकर दूसरों के भरोसे रहकर कभी कोई सफलता नहीं पा सकोगे । आत्मनिर्भर बनो।" आज भी उसकी यह शिक्षा हमारे लिए मार्गदर्शक बनी हुई है। एक बार, इसी प्रकार, हम लोगों को खेलते समय सिर में चोट आ गई। उन्होंने कहा, "ज्यादा मत खेला करो। देखकर खेला करो । अति सर्वत्र वर्जयेत ।" (ब) बजावपि कठोराणि, मृदूनि कुसुमादपि शिक्षा-संस्था कटनी को दिनचर्या प्रातः ४ बजे से प्रारम्भ होतो थी। प्रायः पण्डित जी प्रतिदिन ही इस दिनचर्या का प्रारम्भ कराने आते थे। उनके भय से हो हम लोगों में आज भी प्रातः उठने की आदत पड़ी हुई है। इसलिए जब कभी वे न भी आते, तो भी हम प्रातः उठ ही बैठते थे। न उठने वाले के लिए वे दण्ड भी देते थे और बाद में समझाते भी थे। वस्तुतः वे 'वज्रादपि कठोराणि, मृदनि कुसुमादपि' को उक्ति के जीवन्त स्वरूप रहे हैं। उनकी इस अनुशासनप्रियता ने हो कटनो के विद्यालय को गरिमा और प्रतिष्ठा दिलाई। उनके भीतर अपने विद्यार्थियों के लिए हितकारी भावनाएं एवं स्वर्णिम भविष्य का भाव बना रहता था। वे हमारे जीवन-निर्माण के लिए कुम्भकार के समान थे ज्यों कुम्हार मृतपिंड को, घढ़ चढ़ काढ़े खोट। भीतर हाथ पसार के, बाहर मारे चोट ।। सचमुच ही, उनका प्रभावी अनुशासन इसो कोटि का था । हम सब उनके ऋणी हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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