SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 331
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८२ ५० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ [खण्ड अनासक्त हो जाता है। इससे सांसारिक भोग उसे जन्म-मरण चक्र में भटकाने वाले नहीं होते । इस दृष्टि में स्थित साधक सदैव तत्वचिन्तन तथा तत्वमीमांसा में लगा रहता है। इससे वह मोह व्याप्त नहीं होता। उसे यथार्थ बोध प्राप्त हो जाने से उसका उत्तरोत्तर आत्महित सघता है । ७. प्रभा दृष्टि-प्रभा दृष्टि प्रत्यक्षतः ध्यान प्रिय है। इसमें योगी प्रायः ध्यानरत रहता है । इसमें योग का सातवां अंग ध्यान सधता है। राग, द्वेष, मोह-त्रिदोष रूप भाव रोग यहां बाधा नहीं देते। यहां तत्वमीमांसक योगो को तत्वानुभूति प्राप्त होती है । उसका झुकाव सहज सत्प्रवृत्ति की ओर रहता है । इस दृष्टि में ध्यान जन्य सुख का अनुभव होता है। यह रूप, शब्द, स्पर्श आदि काम-विषयों का जीतने वाला है। यह ध्यान-सुख विवेक बल की तोब्रता से उत्पन्न होता है । इसमें प्रशांत भाव की प्रधानता रहती है। इसकी सत्प्रवृत्ति की संज्ञा असंगानुष्ठान कहलाती है। यह चार प्रकार का माना गया है : प्रीति, भक्ति, वचन और असंग । समग्र प्रकार के संग, आसक्ति या संस्पर्श से रहित आत्मानचरण असंगानुष्ठान है। इसे अनालम्बन योग भी कहा जाता है । इससे शाश्वत पद प्राप्त होता है। यह महापथ प्रयाण का अन्तिम पूर्वबिन्दु है। ८. परादृष्टि-इससे योग का आठवां अंग-समाधि-सधता है। इसमें अ-संमता पूर्ण होती है । इसमें आत्मतत्व की सहज अनुभूति होती है । तदनुरूप ही सहज प्रवृत्ति एवं आचरण होता है । इसमें चित्त प्रवृत्ति स्थिर हो जाती है और उसमें कोई वासना नहीं रहती। इस दृष्टि में योगी निरतिचार होता है । वह उच्च अवस्था प्राप्त योगी होता है और आत्मविकास की चरम अवस्था प्राप्त करता है । वह सर्वज्ञ, सवदर्शी एवं अयोगी हो जाता है । ___ इन्हीं दष्टियों के तारतम्य में हरिभद्र ने योगियों को चार कोटियों में वर्गीकृत किया है : गोत्र योगी, कुलयोगो, प्रवृत्तचक्र योगी एवं निष्पन्न योगी। प्रथम श्रेणी के योगो कभी पूर्ण आत्मलाभ नहीं कर सकते और चतुर्थ श्रेणो के योगी आत्मलाभ कर चुके हैं । फलतः योग विद्या केवल द्वितीय एवं तृतीय श्रेणी के लिए ही मानी जाती है। प्रशंसनीय जिस प्रकार मंत्री से रहित राज्य, शस्त्र से रहित सेना, जिस प्रकार नेत्र से रहित मुख, मेघ सेरहित वर्षा, उदारतारहित धनी, जिस प्रकार घी-बिन भोजन, शील बिन स्त्री, प्रताप बिन राजा, जिस प्रकार भक्ति बिन शिष्य, दांत बिन हाथी, प्रतिमा बिन मन्दिर. जिस प्रकार वेगरहित घोड़ा, चन्द्ररहित रात्रि, गन्धरहित पुष्प, जिस प्रकार जलरहित सरोबर, छायारहित वृक्ष, गुणरहित पुत्र, जिस प्रकार चारित्ररहित मुनि प्रशंसनीय नहीं होता, उसी प्रकार, धर्म बिन मनुष्य भी प्रशंसनीय नहीं होता। धर्म कामधेनु है, चिन्तामणि है, कल्पवृक्ष है, अविनाशी निधि है, धर्मलक्ष्मी का वशीकरण मन्त्र है, श्रेष्ठ देवता है, सुख सरिता का स्रोत है । -सर्वोपयोगिलेखसंग्रह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy