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________________ सुख-शान्ति की प्राप्ति का उपाय : सहज राजयोग ब्रह्माकुमारी सुनीता बहन, ब्रह्माकुमारी ई० विश्वविद्यालय केन्द्र, रीवा, म०प्र० प्रत्येक मनुष्य अपने जीवन में स्थायी युख-शान्ति चाहता है। इसी लक्ष्य को सिद्धि के लिये मानव सारे यत्न करता है। क्या मनुष्य संसार के विषयों और पदार्थों को प्राप्त कर लेने पर स्थायी सुखशान्ति प्राप्त कर सकता है ? मुझे लगता है नहीं, क्योंकि सुख पदार्थों में नहीं है, वह तो मन को एकाग्रता द्वारा स्वरूप-स्थिति में है। हम देखते हैं कि यदि किसी मनुष्य के सामने सुस्वादु भोजन रखा हो और उसका मन अशान्त हो, तो वह उसे नहीं रुचता । साथ ही, पदार्थों को भोगते-भोगते मनुष्य स्वयं मोगा जाता है और अन्त में भोग-साधन : जाती है, शक्ति क्षीण हो जाती हैं, तन निर्बल हो जाता है और मनुष्य शारीरिक जर्जरता मोल ले लेता है । एक ही पदार्थ कुछ को प्रिय और कुछ को अप्रिय क्यों लगता है ? इससे विदित होता है कि सुख विषयों में नहीं, वह तो मनुष्य के अपने मन पर ही निर्भर करता है। तंसार के पदार्थ परिवर्तनशील हैं। उनकी अवस्थायें बदलती रहती हैं। जो स्वयं क्षणभंगुर हो, वह स्थायी सुख-शान्ति कैसे दे सकता है ? विषयों को प्राप्त करने, उनका संग्रह करने, उन्हें सेवन योग्य बनाने और फिर उन्हें भोगने में ही मनुष्य का सारा जीवन खप जाता है। इस पर भी यदि पूर्व कर्मों के उदय से यह विषय छिन जावे, तो मनुष्य के लिये यह दारुण दुःख का कारण बन जाता है । इससे यह अभिप्राय नहीं लेना चाहिये कि हम विषयों का संग्रह और उपभोग छोड़ दें। सजीव शरीर के लिये भोजन, वस्त्र व स्थान आदि तो अनिवार्य हो होते हैं। यदि ये प्राप्त न हों, तो मनुष्य का जीवन नहीं चल सकता और उसका मन विक्षुब्ध रहता है। अकर्मण्यता तथा आलस्य-दोनों ही विकार हैं। मेरा अर्थ यही है कि ये विषय सर्वांगीण स्थायी सुख शान्ति के स्रोत नहीं हैं। सुख केवल धन, उत्पादन और पदार्थों को उपलब्धि का ही नाम नहीं है, उसके लिये उत्तम स्वास्थ्य, मन की ज्ञान्ति तथा मित्रों, सम्बन्धियों एवं पड़ोस से अच्छे सम्बन्ध भी आवश्यक हैं । यातायात, मनोरंजन, ज्ञानवर्धन एवं वैज्ञानिक प्रगति ने हमारे भौतिक सुख में पर्याप्त वृद्धि की है। विकर्मों को दग्ध करने, कर्मों को श्रेष्ठ करने तथा संस्कार शुद्ध करने का उपाय : योग उपरोक्त अनेकविध सुख हमारे कर्मों पर ही निर्भर हैं। संसार में सभी लोग मानते हैं कि जैसा कर्म वैसा फल। यह कर्म-सिद्धान्त नास्तिकों को भी मानना चाहिये। आज का वैज्ञानिक भी क्रिया-प्रतिक्रिया या कार्य कारणवाद को मानता है। कर्म सिद्धान्त इसी नियम का आध्यात्मिक पक्ष है। कर्म अविनाशी है, मनुष्य को अपने किये का फल अवश्य भोगना पड़ता है। साधु हो या महात्मा, दुष्ट हो या पापात्मा, कर्म-फल किसी को नहीं छोड़ता। मनुष्य को चर्म चक्षुओं से दिखाई दे या न दे, परन्तु प्रत्येक के साथ न्याय होता है। देर है, पर अन्धेर नहीं। दुःख देने वाला व्यक्ति यदि इस जन्म में नहीं, तो अगले जन्म में दुःख अवश्य पाता है। विकार और विकर्म, संस्कार और संचित कर्म ही दुःखों का कारण है । इनका मूल मन में उगता है और पलता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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