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________________ ध्यान का शास्त्रीय निरूपण १२७ १८ त्रिलोक प्रज्ञप्ति में ध्यान से प्राप्त होने वालो आठ कोटि की ६४ लब्यिों का संक्षेपण निम्न है : १. बुद्धि ज्ञान लब्धि अवधि ज्ञान, मनः पर्यय ज्ञान, केवल ज्ञान, दश चतुर्दश पूर्वित्व, वीज बुद्धि, कोष्ठ बुद्धि, पदानुसारिणी (प्रतिसारणी व उभय सारणी) बुद्धि, संभिन्न श्रोतृत्व, दूरास्वादित्व, दूरस्पशिस्त्र, दूरदर्शित्व, दूरश्रवणत्व, दूरघ्राणत्व, निमित्त (नभ निमित्त, भौम निमित्त, अंग विद्यास्वर, व्यंजन, लक्षण, चिह्न, स्वप्न विद्यायें), प्रज्ञाश्रमण, प्रत्येक बुद्धि, वाद विद्या। २. विक्रिया लब्धि अणिमा, महिमा, गरिमा, प्राकाम्य, ईशित्व, वशित्व, अप्रतिधात, अन्तर्ध्यान, कामरूपित्व, लधिभा। ३. क्रिया लब्धि १०+३ आकाश गामिनी क्रिया, जल-वायु-मेष-ज्योति आदि चारण क्रियायें (१२)। ४. तप लब्धि उग्र, दीप्त, तप्त, महा, घोर, घोर पराक्रम, अघोर ब्रह्मचारित्व । ५. बल लब्धि मनोबल, वचन बल, कायबल । ६. क्षेत्र लब्धि अक्षीण महानसिक, अक्षीण महालय । ७. रस लब्धि आशी विष, दृष्टि विष, क्षीरस्रवो, मधुस्रवी, अमृतस्रवो, सपिस्रवो । ८. औषध लब्धि आमर्श, क्षेल, जल्ल, मल, विडोषधि, सर्वोषधि, मुखनिर्विष, दृष्टिनिर्विष । __ अन्य ग्रन्थों में इन्हीं कोटियों का संक्षेपण या विस्तार मात्र है। योग दर्शन में भी विभिन्न प्राणायामों एवं संयमों से अनेक लब्धियों का उल्लेख है । पर जैनों के विवरण की तुलना में यह बहुत कम है। फिर भी, संक्षेप में वहाँ सिद्धियों के पांच स्रोत बताये गये है-जन्म (संस्कार), औषध, मन्त्र, तप और समाधि । बौद्धों ने भी लौकिक-लोकोत्तर लब्धियों के कुछ नाम दिये हैं । उपसंहार ध्यान-सम्बन्धी शास्त्रीय विवरण के तुलनात्मक संक्षेपण से यह स्पष्ट है कि जहाँ आगमकाल में यह शारीरिक एवं मानसिक तत्वों को प्रभावित करनेवाला माना जाता था, वहीं ईसोत्तर सदियों में यह केवल मानसिक एवं आत्मपरक हो गया। समय के प्रभाव से इस विवरण में योग के तत्व पुनः समाहित हुए जिससे यह पुनः त्रिरूपात्मक हो गया। इससे इसकी व्यापकता बढ़ी है। यद्यपि सभी पद्धतियाँ ध्यान का चरम लक्ष्य एक ही मानतो हैं, पर इह-जोवन से सम्बन्धित लक्ष्यों में विभिन्न दार्शनिक मान्यताओं में विविधता पाई जाती है। ध्यान के शारीरिक एवं मानसिक प्रभावों के विषय में आचार्यों ने अनेक अनुभव और निरीक्षण व्यक्त किये दि। इन पर अब भारत और विश्व के अनेक देशों में वैज्ञानिक शोध की जा रहा है। यह प्रसन्नता को बात है कि अधिकांश लौकिक शास्त्रीय विवरण इस पद्धति से न केवल पुष्ट ही हुए है अपितु शरीर विज्ञान, रसायन, मनोविज्ञान एवं चिकित्सा विज्ञान के अध्येताओं ने इन विवरणों की अपने निरीक्षणों द्वारा सफल एवं प्रयोगसिद्ध व्याख्या की है। यही नहीं, अनेक निरीक्षणों से हमारे ध्यान-सम्बन्धी प्रक्रियाओं के ज्ञान में और भी तीक्ष्णता, यथार्थता और सूक्ष्मता आई है। यही कारण है कि इस यग में योग और ध्यान की प्रक्रिया हेतु अधिकारियों पर लगे प्रतिबन्ध शनैः शनैः स्वयं समाप्त होते जा रहे हैं और यह प्रत्येक व्यक्ति के दैनंदिन जीवन का एक अंग बनता जा रहा है। इससे ध्यान के कुछ अलौकिक प्रभावों पर भी आस्था बढ़ रही है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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