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________________ ३] ध्यान का शास्त्रीय निरूपण १२३ मन्द श्वासोच्छ्वास तथा उसके अल्पकालिक अन्तःस्थापन से शरीरतन्त्र के आन्तरिक घटकों एवं प्रक्रमों में सजगता, अप्रमाद, पूर्णता एवं शक्तिसम्पन्नता आती है। यह नीरोगता भी प्रदान करता है। अतः यह ध्यान के लिए उत्प्रेरक है। प्राणायाम से शरीर का अन्तर्ज्ञान भी होता है। इससे यह भी पता चलता है कि नासिका रंध्र में पार्थिव, वारुण, वायवीय एवं आग्नेय नामक सूक्ष्म एवं संवेद्य चार मंडल होते हैं। इन मण्डलों में पुरन्दर, वरुण, पवन, व ज्वलन वायु संचारित होती है । शुभचन्द्र ने इस विषय में विस्तृत विवरण दिया है । प्रेक्षा ध्यान पद्धति में भी प्राणायाम को श्वास एवं शरीर प्रेक्षा के रूप में स्वीकृत किया गया है। पतन्जल का अनुसरण करते हुए शुभचन्द्र ने प्राणायाम के पूरक, रेचक एवं कुंभक (अन्तःस्थापन)-तीन भेद किए हैं। वहाँ परमेश्वर नामक एक अन्य भेद भी वर्णित है जो ब्रह्मरंध्र में विश्रान्त होता है। हेमचन्द्र ने प्रत्याहार, शांत, उत्तर और अधर के रूप में चार भेद किये हैं। इनमें प्रायः श्वास को अन्तग्रहण कर उसे शरीर यन्त्र में भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में ले जाना एवं उसके बहिर्गमन के समय का नियन्त्रण करना समाहित है। यह कहा जाता है कि ६० घड़ी के दिन-रात में श्वास वायु सोलह बार नासिका छिद्र बदलती है अर्थात् एक छिद्र से एक बार में एक घण्टे वायु अन्तंगमित होती है। इसी प्रकार, एक मिनट में प्रायः पन्द्रह बार श्वासोच्छ्वास चलता है। प्राणायाम के अभ्यास से ध्यान की दिशा में आगे बढ़ने के लिये बहिर्दृष्टि त्यागनी पड़ती है। इससे ही अन्तदीष्ट प्राप्त होती है। इस अन्तर्मखी वृत्ति को जगाने का उपाय है-प्रत्याहार और धारणा । इस प्रक्रिया में साधक मन और इन्द्रिय-विषयों के सम्बन्ध को तोड़ने का प्रयत्न करता है। इसके लिये वह इच्छानुसार आलम्बनों पर, ध्येयों पर मन को स्थिर करता है। जब यह स्थिरीकरण ४८ मिनट तक बना रहता है, तब उसे ध्यान की परिपूर्णता का चरण माना जाता है। यही समाधि की स्थिति मानी जाती है। इस स्थिति में मन की चंचलता दूर हो जाती है, वह एकतान होकर शक्तिकेन्द्र बन जाता है । इससे व्यक्ति में सात्विक गुण प्रस्फुटित होने लगते हैं। (द) ध्यान के ध्येय या आलम्बन ध्यान का ध्येय वह आधार या वस्तू है, जिस पर चित्त को एकाग्र किया जाता है। यह ध्येय दो प्रकार का है-सरूपी और रूपातीत, सचेतन या अचेतन । इस आधार पर ध्यान भी दो प्रकार का होता है । सरूपी पदार्थ मूर्त और दृश्य होते है, स्थूल और सूक्ष्म होते है, ये बहिर्जगत के भी हो सकते हैं, अन्तजंगत के भी हो सकते हैं। ध्यान की कोटि के विकास के साथ ये ध्येय क्रमशः स्थूल से सूक्ष्म होते जाते हैं, जब तक रूपातीत या निरालम्बन ध्यान की स्थिति न आ जावे एवं ज्ञाननेत्र पूर्णतः उद्घाटित न हो पावें । निरालम्बन ध्यान में परम आत्मा का ही ध्यान किया जाता है। ये ध्येय शुभ और अशुभ परिणामों के कारण होते हैं । ये शब्द, अर्थ एवं ज्ञानात्मक होते हैं। ये नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव के रूप से चार प्रकार के होते है । धर्म ध्यान के चार भेद भी ध्येय के ही रूप हैं । शुभचन्द्र ने सालम्बन ध्यान के लिये शरीर तन्त्र के दस अवयवों-ललाट, नेत्र, कर्ण, नासिकाग्र; मस्तक, मुख, नाभि, हृदय, तालु एवं भ्रकुटि का नामोल्लेख किया है । सैद्धान्तिक दृष्टि से, शरीर तन्त्र तो बहिर्जगत ही है, फिर भी इससे भिन्न एवं पृथक् स्थूल ध्येयों पर भी मन केन्द्रित किया जा सकता है। यह कोई भी इच्छित या अनिच्छित वस्तु हो सकती है । जिन-मूर्ति, गुरु-मूर्ति, संस्कारित स्त्री या पुरुष, सात्विक चित्र, प्राकृतिक दृश्य, पशु-पक्षी, पवित्र पर्वत, लोकाकृति आदि पर भी ध्यान केन्द्रित किया जा सकता है । वस्तुओं के अतिरिक्त, गुणों पर भी केन्द्रण हो सकता है । __ शास्त्रों में आर्त एवं रौद्र ध्यानों के आलम्बनों का उल्लेख नहीं है, पर उनके भेदों के आधार पर ही उनके विविध आलम्बनों का अनुमान लगाया जा सकता है । धर्म-ध्यान के आलम्बनों में आज्ञा, निसर्ग, सत्र और अवगाढ रूचियों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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